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ग्राशाएणा९ट8 35 “१॥787 झ0म्रटल, पाशर ॥5 जाएगा 2शटिशाए९ शोीशा
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(835, 3984), 9 88
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कर उीएबु॥770#7 5/004
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9 छह , 800८7, 2०४४ 35, 9 395
0 वह प्शा /एए2७०६४" 75 ९7०३ थ्रटणा ॥0 9९ 702९0 0 8॥९॥४॥, 7८
5806 ए 8 50५5९ गीशा 8९ए2श॥05 ० 076 ९07०5, शा १5 ह]९ 0०३5८
जप ताब्ाग3 भा 0027 ७४005
4 800प्रजाब्रंए ० 28070-#487772, एटा ठशैंशा॥॥65 6 ए॥005 99श2क
लाबाबलंशाडइ005 0 छा शाए0०वा९6 0285, $ 3 [श9९ ए #बगात #बारा३ 2$ 3
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बाप 93580 (8782, ए90९, 820श 2१4 27220) 706 /8$४074९ ५१07%075,
लंट इजंाँल्ण 8 507 00 फ्र प्रीए5 एी (7748 40009078 40 ॥8 ॥ए 0८
ईल77ब 35 20९0 प्ञा0 लइ्ा। 03882 [५79९५ 70 ० प्रीट३९८, ८णाब्थयणा बाते
दाएजा९((९ 002टपचाए, 4९009ग्राह्टड 988 00979९7ए८ ९ ९७८९ 6/009 /8/77785
435 पीर शाप पीट गदापाब। ढए0ए85५ 0 पट 500 [॥6 ठ0/श 0िप - €८ए ३,
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48787 &2777745
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855022707ा शाएं। (87774, (05 3 ॥0एश826 50प्री, था था/00गशा। ए 8950002
व8977255 70 350 3 0ण़ाए सिब्बध्ब2/275279, ] 6, 8000 |, 280॥28 68, 9
390 $6९ 880 800८ 7, 22035 20 2, 300 25-27, 797 394-395
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7० ए्राब्राक्ा/ए005 बा भा5इफ़ाल0प5 प्राच्याटिडंबा।एण5 0 0णाइट0पश255
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बा46 ९008007 005८एरच्ता? ६#2/7745, प्रागरिा।2 राहुएएा श्ञाते (2
कवटडफ्पट007 0एा 6#/एटारएट #बाफार5ड, 300 50फछाटा९ ९८६॥72055,
व89[770255, 72806 0 9॥55, शत प्रा ताइ१फ्थ्दाभारएरट ०ए 8९०ए००४९४
#द्रा7745 | वाविंट शभघता, प्राधिार 0जएऑॉ९(8८, ॥770 ए55,
भाव फरार? राहुए0ण (क्यरााद/ ्रीक्टएडी/बिरे भार ीट ग्रबाफाबी ॥॥0
प्रधीशला( छा0एफुशा[९5$ 6 6 5090, जशाीत्रता क्वार लफ़ञऑॉटव गगाठ गलत गा
सार्ए( 9५ प्रार प्रीएला०र 0 ६7772 प्रगॉटा बात धार छा0एष्टठा परा०
एशब्रा।इ400ा प्रट 770एहषा:ई 06९ 67404 (7745 धा९ 0९४ए6926 पार 500]
#पा९ए25४ एग्राइटशा2ट, शटाउक्रगार 20फ्ञॉटॉटए टाह्टाए5४टव जा $5र्2ा,
ए०९८०॥स्९$ जा 5९-8णएणीलटाए, द्रात60 पीटा 207८5 00 एह ८बया2ट0
दणखब॥722077 ९ पृफरल 5शा 75 ॥52ा 0 ॥00रात३ ग्राणरट, 7: 6025 प0
7९९6 3एघाए 25८
या पड अंबह2 [९ 507 एशाए 76९९ रिणा &क्77485, त्रचिएशए ऊठांटा
376 झफ्लशइटाआ005, 32ए20%5$ 35 8 72570 0 2ए०07//078/८०७०, प्रागिधा2
ताण०जा|ट(त2८ (0005टटए2८) भाव 089ए02६5४ ?? &/(०७४एट॥८2८) ब्यत 7
(डशापलाटए णा ०जगाइटणाआ€८55) भा९ पर प्रीधलशां सलाधाइटंशाशा5 0
43 [008 , 80० , 88079 63, 9 399
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45 उ0का 2/0 2५7 20॥45 2287 /75/#2वं 2/2/856, 0 3, 0-7, ॥0८
46 छकबटमकाउ279, ॥ 6, 300८|, धा45 45-]6, 9 385
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डर. उाकुब778#० 57087
स्ए्शाऊ ॥शाए एशथाए णा 50ए 36 50 48 27274 (055) 8प 580 ॥08 35
62 ८/0/ 2704 ॥85 कराश्यादिडबरा।ठा3 ता 00-ण९62९ दाद शंड्रणा 70क्वपा
4८9९0 एप पट 'ा0एणा०त४22 306 एजबाएणा कैडलााएजाए 77795 ९
प्रक|ञााट55 छा छाइड ० फीट 50. जाली 38 फ्रेट प्रिषलाणा एा ८॥7 ॥5
दाड07720 0१ 0९ 8टएगाए दद्वाय/45 भात प्र तराफातक्ारट 507 स्टाब्रा5
5प्रोष्रशह९९ पा फिट 0एटथ॥ एाी प्राइटाए द्वा0 गज्लातआाए४ फरार 0९
तटडाएलाणा एण 2474 ६दा7795, प€ ४200 9200765 &##ए4०2/8 (9ण८),
गश्ट खणा ६7772 0प5. ब्राव0 एटबवा228 ॥5 एए८ चाए/८ 0 58/, ८४:
गाबगार;। बाद ९त]075 5फ्राशार छ55 एणि ९एषशा एप जार भागा पवा
डंडा 0 5एफाशारट छा5इ$, जा९ ।शास्क्षा5 ४४6, एत८३३ए, वराषशवर्ँ€ ्रात॑
छाए $ब्राव्रता003979 435 रारातर तर३टाए९व 0९ ए90९
९0)रताएणा ए प्र छणक्ाा। परएणवी, 8008 जी 0इसाग्राबाएट ्रश्चहा।
ए9 शंगधाए पराओ्ं ॥९ 75 ॥टएट & 9280९ 878 #॥ज़३५$ प्राइटाककं।९ 096 0
2श/कबब-87778-725770 (34) | ०0 एण005, ॥९ 7$ ८१ा८शी९० जा (ए0
एणाशबतालठगाए ॥070शश फछाएए0655८5, टिद्वा 800 06८टश्ञ2 णा ए5-- लक ए
(6॥0 870 6९शा€ 06 5९९थ८ा॥ए ॥5 जटशंशिट 79 5९४३९ ट्राब्पीटा।एणा 86
॥8 परात९८८$5क्षााए 906 एी त€ढता, ज्रीशा फैट 55 ॥0 ९४टकएएए एणा।
7., जांग्राट 92 20९59ए थाएं प्रशइंबोत्टाए 57५९5 (0 5८८८ शाड एटीक्चिर था
शाशईंग्णाए वट्शा९३$, इशाइप्रबं छ/285ए07९5 800 ७985४075, ९श९
दीशुद्रा772775 करार 0९ इश--टगरह्रवांटा2ट6 5075, जा0 एज िशा ठजशा)
गराजाा0ता ण ग्रशबट ताएुएशाणा, 74०एटलात॑थाए। ण 6 ए९टटटा रण
०पाट5, 00 प€ बा ए फ्शवाणा (7720#/8-/4 काक्षाह्र०) ॥70 ०५ प्रेधा
०एा ९रींण४ 9टाटरएट गाब्राएंब टरीबाएडीद्वएब एस $2॥8770705 0
इश-लाप्राशा26 $0प्री3 प्ग725876 ॥80शा7 गाब005 20 ,९६25525
णा प्राद्या 0शा बात 929 प्रौला 0एा टींणा5 8९ रद णएा तंलटाएडआ0ा,
भां॒ाशां 06 93505, 6९ए९:० प्ाट थि। ऊछग्रलाएब्राए 7 प्रथा
तारस्रार ॥4प्ार दवाएं पड 920णाट /द्र&709ए णा 50-वल््यायटटव 07८
[€क्याए25$ 0 72035 ज़रा ९ 025 0जा प्रॉाशटा ज़क््थारट$ 5 ऊठएश$ड
था जाला बार छक्का छा णारँ5 गरद्वापार लि९ वश 08ए९४ 0 2४25 घछ
जाड उाब्रएाब्रश्व (पद्राणर) भात ९ 872९6 प॥र0 इणशटांग्राप्ट टडट, 7९
7९एषा 8007७ फट 27ब्वध8 (छाडंलाएश त वबापार) ए ब्राएप्राश फार्ल 6
8 85छागरागाएड़ धो९ गारकायाई ० प्रा छएणात0 “उशछफग्मा287, पीर 5ग्राशदा।
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जञ0 ॥35 ०ग्रपप्शर6त 0 8९४0920 ध€ 9070982८ ० थी। गा 98580॥5
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प्रपष्फ्रश ण #लशाब!। 0 0.ा5इलाला एटा?25 (450 ८४८6 7747०)
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टएलए ा42/475 )्रण 3 राव (तट तर एाएप्रक्षारबा3, तट जाट
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धाएन३ ण' ॥2८ णतंट जीतता 2णाप्राएट$ 00 शाशाशा ए2छा९ णि ॥णा४
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ण 7०आब) (0 था 679 ग९ पट काकुएणणा9९५$ ए फ्राट ॥0९5,
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णी ऐिशा' एट््ात९255८५ भा वगरा४0075, 5एत 35 0९0050॥, ाव्विलाा)रता
बात 9255005, त4( ॥43९ पीशा ॥रए25 फराइशकक€ 76 ए९एला। प्रथा
दिणा 8८र९०क्एए पर ताश्ार एछटाएबा।25 वबिशां पर हिट 50फ॥
सरएम्रटएश, व पराएडं फट लंत्वाए प्रावशड000 फ्रबा ग0 पशफ्रक्रा(द्षव एकता
कास्लाए पी थाए गाए एलाह जाता एग05 #॥2९ एक 90 ॥5 [0
आ069 ए€ गा! भा ९छकाओं 06 78 ण णवसशा एशह ए्याए एला?25
प॥९९ (00 फ्गगगी ॥ाशाइशरटड३ एए छाशा 0ज टरींणिा5ड, प्र0प्थ्ञी ९६: 44_#्राव7
९8० 75९ (0 06 $शार गटाद्ला। छ 0094॥000 ते मिा/बहाव747 उं्राताह।ा
98007 फाए्यग्रा5 9 ९एशएणार टक्या 96 8 34, पर्व ९४९० 7ठराक्ातों
80ण ४ एणशाशबीए ताशार ० ठ0क्ल उ्लाए्डणा 7 06 जात इ्वाएटड
24 (ा्माफून रिडा व80॥ 77८ सिकाार/या4 2:2/2570फ7 5ग *एट्रायहा3 4लेक्षए8,
प्र्चाड।8९6 9 साक्रवब० 70455 उद्चा) (३), !95), ताप०तपलाणा, फ़ 5-6
#छालएमर्ए पा
इकाकट उरहा5 ण 0०58004 ८सएा 40 6 40ज़च्डा ॥एगड्ु फटाफट,
एफ ठल्डाक्ृझगाएा ए एडबफाीए 75 250 प्रडथ्त एए पक्षा0ए5 ठफ्रटा
व्स्गगब अष्राव05, ॥सएतंग? िप्राएंगबंएतत9 पा सउब्टीव75879 । 6,
50दाब्रब्थाब, 2 पट ठकुशाणडए एण #75 #ए/75 ?प्रफ्रग्कृ809 था :07/2-
28274, 280 एम्रटाड5 ४07 ्रड्ग्राटट, 6तान्रएक िपतत॑॥८प्7त3 5825
“पुफ्ट जाएशइसशला, एरी0 ॥85 7९852 व5 ॥4ए72 300 8 ,7णञआफफथ्तव
फ़फ घाट [9038 ण॑ 4 जएणा95, 9200728 इऑश-३8एरीटाशां; थात॑ ६. 5
<बीटत डीक्रब7787ए "7 पुत्र ॥8 टएएःएएड्राटडं 90082, 608)8777//0 5
वीबा $था शा0 था 78 0एशा, जञाप्रिणा हट ॥९ए9 ण 358$97606 ए थाए
णजाश 00०० ० इफरशंबा।02, 92207स्25 ॥5शाॉ (#788777007 2/72४98/7, ८
॥ट्बा22545 0एआस्) प्रपट छा ।29 7407८ गर $27€९९०7८5फशाट्ठल, फट,
707-00फणर्बो, जञाधरा0ए काए छा, पराएजीचराटठ पा दा ६दाग77८
005, प्रफशाइक्री2 छाल एणाइट0एचशर55, 4९ 728/4 (त0एटा) भा।
धी35704 ((5प्रॉाटा2820 0 05798557074/2८ 0$टरथ, इटश, ण लाण८टा255
कडशफ्बाणा ठ बशगाटा2९55 5 7 दृचशाबाएा[" 285 70), शञाति0ए
भा गताए ए 39/णाए, धथट (जाए 3 पाए एशथाए (2१ 0 ४00) ॥35
इशाव]शा09 छा ९0॥5500॥285 का ॥शा०९ टब्या 72 [।00म्रल णा 5८श थभा।
डष्ब्ाक7727ए 0 प्राबाशाने ऊफाल्ल 0 गरणानाएाए इफैशंभाटट, डाटा 35
79047, ८था ॥९एल पा) ॥6 इ्वाए5 0 33 0 उएक/877027ए0 णाए (९
800| ठ्का 7040० प्रढ पहा।258 5६४४८ (70040009 7टड४0८5 ॥ ९ 5
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प€ 466९00०,ाा गिणजा पट #&27777485 शीश) ९ प्राशलशा। ए०ग्रशा$ ०ए 7९
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शण॑शाठर, व, 7णा-#ट्बपा8, 5९०४-९०, भा त्रात्रा0ता ए एक्रषाड
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१€ ४0०-शण॑शाल्ट, श॑ंटर ए्ागउब थात॑ 5९टी-+टञआाश्ा।ं, 0000 ० 5टा525
भा 5४४0०7९९ 0 9385075, जद 080 [0 शा।शा।॥शागरटा। 200 ा९
उक्ाएबाा/720724बा (43), 70शाटीलबों बात ज़श]-ाटब्ाह 0णि थी
€श्शप १५
बृ0 लाक्राल्ट वरगाह एणाएठ, इटानिट्शंग्रा। ॥॥0 ताइलए॥९ ० (८
$शा।, ०6 ॥35 (0 009 धर णाशठए5 छएथ्ञी) 0 लाॉशातओ १50८७259 [2
बिशगा8, ॥0#275, टॉट दवा0 3860 ९एद्बावाए बरा6 5फओवओर छिए$़
0वाह्|॥2078 (वक्ष ०//क74) भाव छाा2 प्राशाउट ॥९तांक्षाणा (527/:8
42/927०) (83), धाश्चक्तए 4९४70॥फष्ट &बगाा290णावब&९ 0 ७९९०एगााड़
उच्डदा77077 पा, ॥९ 56078 207रॉक्षा।$ 2! फ्रर 60पा ॥779097[
९णाफ्णाटा8$ 0 #कागा4-१089, शाड 207785507, $९८]-7९४ 0,
एशाप्राराबांव07 ब्राव॑ शारताबा0ा (74794-4०7774-77822-52779 7/77)
प्राद्यपणारत 99 5च्याब्रा।कं।बताब गा गा$ 00९0 प्रफुणाक्षा शरण: --
#ए(#_क्ाएड7450474 + वा धा$ 00900, ९ $क्षाशृत्तां ०जराधगशाबिए0ः
जावश्ाग्रावंबलाबा॥8 ए0त्रा5 0ए तब ०णा[485४0 0 7रणा-शणग॑लशारट
5 6 गराइाएारटाएंगो ९8:५९ 0 इट[-]टछराथा, इटॉ-72ट४7487( 0
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705$९557079), था कशाएरालाबाता [0805 00 पराल्वाधाणा (2/द्ा78 0
उब7794/0) * [( ॥58 0 जाड 724507 हक्व ०एाए45३०ता (दंदुरब) 35 580 [0
09९ 0९ ७5॥$ 0 ०/क्काा8 (छाटए 7 प्रश्श॥2005९55) &70 2/077758 ॥5
(९52फऐ९व ॥00 जाए 3६ एकागाए (477० (5फुथासट छाटाए) 0प गॉ५०
एग्रगा 827#774 ([9), #९ शफ़ाटार वाएात८ परप्थाए 0णिए॥डए़ 72785
गा ७ चृषार टरशावलां ए7णा। पार #900९, (8 ड़ 5/0028 ९0णांध्रा5 8
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5गगध्ाबदंगिबदाबलीबाए३, १६/69द05#95279, एक्षाईई80९0 ॥7 छक्का 59 गरहढ]
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शा00 6, 9 56
46 3966 3ब7877297 $/009, ॥ 32, 7 8, 0०0८
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उॉशापीत गाज 0 2#4#7 (७2ए०0०), /78278 (१70ज९086) 0 ्वार78
(बलाणा जण ०0णावाल) ९८5८ <क्षा 98 00ए॥४९6९ 0 &87778/-८975/097
(छश्ा। एशाएशक्पएजा एा शब॥्मणा), उ्घग१४६777478 (7स्8॥ ॥9709८086)
बाद उद्घय8/-2487704 (परशा। 20042) -- 06 क्षाह८ शाह (/7-74/7०),
7९0608722८4 श उद्मागाध्या कट एप 967 एलाएट (67208) (77745 एक
96 38९8070920 07 प्याज छऐ€ 58220 जि८ रे ध्र।25६ पा2€ [2७८६५ (84)
पषाटए छा ए०ज़टापि। #0०घट्ां। 00 तलटिया प्रट शिाग्रावंक्८ धाबए ०
वशएडाणा, ॥#/80077070, शा), एा८९ 0 ९ए, ॥॥0 (९ ए4905 (90) 7॥९५
4६ 07९ $प्राट गर्द्वा5 00 शा) 27487(4-९42/757#/8४४ (जरत्रिवरॉर राशणा,
पग्रागप्राट [0शॉ2982८, पति: छा55 ब्वापं जराजिारट शहुएण), ०एणराफ्ोट८
इट[-०णाएएं णा ॥6 52/09श7898 7 णि। ००0] एव 0श 5९६ (३0724-
(87772) (78), ९ णिप ग्रावटकुृुशा।१वल्आ, 70 $फ्ीश्ट 0 थाए 0पराडाकह 0
व्ाशात्रों 7णा048९ णा 5प्ु04ाब्ाएएण 00 दाए छा€ट,' 800 92007८
5धब्बपब्ाए707, 44/7047/4, उ73, ९८
7 ग्राएश, ॥0४९रश, 9९ टला): फ्रावटाइ000 फर्क 8 20गराणाद्वएणा
णीत्यों प्र22-- 28966, /74778, क्षा6त ६7778 0 &द्र72:8/-;8/5/47.77कप8-
लाब्ाए08 -+ ०णाशाफिट धीह एमी [0 [एशबाएणा शा 00४ ए०05,
पार बार भा ॥62९5587ए7 [0 8ला€९ए९ पार 00९2९ ए हा6€ प्रिंट
व4९ए९०फुञआला( एण पट एछशाइणाब्राज॥ ण॒ 500 गगव॑ #धा।) 700॥9 0 $थ-
॥टथ्रा28007 / 06 फ्राटर ग्रापड 7०6 ९एक्रै।रत ॥ 06 जी0 |ाश0८5 0
बाण एातट४00० 5 फ्र€ 5 रात धर उ्छारतर 5९ (क्रबायततपवाा)
$क्रा]क्रा।40803 ज़5 ॥2ए: 8 रा 0 गाए ०6-चवट्व #807णा[
0 2६702 #४०29, 0९ 77 8860, #एक7ए4 0 #द्वाया7/व 77828
उुक़शर भार ए0 काश 709८5 0 त5007स्752८5 धर छा 7सड7ीटीब
बाएं शिक्षाय्॥क्ाब 7॥6 7स५5१८2०/वगच्र छ॒ञ एस शत्ण़ 0९2827025 (785
जय 7र्लशिरसा९०९ 40 प्रीचा ४8227 (7॥ए९) 0 &ए70ए०८$ 77९८
0ुक्ल:8/8738 907 ० श९€ज 8९52709८5 पट) जाग उशिशालरट 00 एधा
एणआार्टाणा जाए पट वपराा९5 970470226 799 पार 45502ब007 00०९
पर25 वपए$, उद्घा74 2475॥47, उ्घएदन /एदएव बाते बा टाब्रााए्
-- 76 0772९ ]९ए८६ -- धर (€5२सफ़टत 85 06 एबी] 00 फएशबााएणा 707॥॥
पविर _ छुकल्ला#/ब72 (छा820034, 5९०णावबआए 0 ठप) एणा ए' शा०्त
बार वा 8कएथा। (5४/४/0, ए्यी0 ए॥|ी 7ण 72 $5७४४४४९० 99 8009 07 980 (॥785,
[72088$0725 70 ए॥5, 62श7९$ 0 98880॥$ 0 709028 इाशाए0058 शीं075
70 ज्ातीतवा4ज गरवइशा 0 28/2-%244777 (70-8£ 0 ९४0709 09/९08),
जय] ॥९८2४४भए 0६ बजद्वार 0 काते 92 20ए066 0 एरातशइा390 ॥0 (87८
खिणणाॉट08९ ण भ्रात 92007९८ शाधिटाउटत छा ॥#080%28 पा ९ फछ़णर गर/पार्2 ०
4727787, परीशट०ए 9058८5598 (९ ध7९९ ]९एशं5
जज. उीएडएबाए7/77 58002
साठ पीर >ाड्टीकर (ट्बा ण ज़ाशदए) एणए( ० राट्क, गएचटरल,
चर 500 ० 4कावा 5225, (0ए5 बात ट्धाट25 तार 52 प/0पए्टरी प€
इला, टजाह्न्राएह ॥ पट ण्रार जी तर पार्ट ॥ट्एट5, पट 500 ॥82[ 75
लाए ९ 2४०४८ ण ॥स्577टा। ए प्रणब 0 ॥एशबाणा वश छ जात
हटशिटा०2 [0 0९ #॒क7शक्रीगाब एणा। ण' रात्फ़ 9 वंक्रघला (फजञणा,
एशल्ट्ा/णा ० 282८7), /ध॥778 (ठ0-7९098९) का। दीराा(ब (दान 0
€एणा१एल) क्रार 0९४20 35 पार्ट गा वट्याए 47 78 जार दशक
(डफ्रडश्राट्ट 0 था) ज्राए0पा बाएं वाटिशाशबा।एणा 70 ४९९, 00 0ए
2706 (0 ट्थार९ क्राट 0९ ब्रताएएा2ट5 0 46287 0 507, जाल) इफ्रैश्श
पा 46फब्ाए ४0०0९, ॥९ए ॥8ए2 70 छाान्नटा0९ ॥कूधा रिणा ॥. 47747 5
णा€ शावरए जञाएतीणां गाए तालशियाबाता ॥0 7ग८ दाशाशएाणा
ए09९एटशा 8 5708४8702 भा0 ॥5 भाप 5 एपर टिक्झौ॥/42
छ9 86९ए0०0०३ ०7९ 825 00 #एफ/शटाबट ॥९ वृषशाए९5 ण ए८ वाशए, एप
अप्रन्यद ०6 हथाएड 0जएॉ2९१2८ ० 0056 वृप्शातट$ क्रात ९८5 ०णाशाल्ट्व
णएी पा 905झंगाए 0 स९्थशाशाए 0052८ (०8॥0625 भाव 09 076'5
टश06८8ए०प्रा5 07८ 5 ब/९ (0 ठ€एटा0ए) फरार एठ0टाए20८5 0 0८ इशथा (0
॥९ णिटशं टाई था0 526 ३/श47227707ए फट प्रारट ॥##९ ग्रॉटाइणाए€
3॥0 ॥29 (0 5एट0एएाशा ९४० 006 फ्रशाशा #_€ णि०९ ण ४ ९ (7९९
]९ए९६ ॥5 दाश्टलट6 [0945 [7९ 50 067 5007 एशग्राए (#6 शद्म0 ०
82 0९ |009]९62८ एस $९६ ॥)॥0 ३050०फ७णा शा $टॉ श€ ०णांव८0),
॥ 74/९5$ 90$87९ प्र प्राशाइ९ गधत्ताबाणा (5#प:/4 4747० 0०
$4877794/7) 4॥5$, गा पा, $ 00070 60 ॥८$वाॉ जा 06 9९९एण्गधाड
उाुबा700ए उद्यगागव)॥, गा ए2वाए, 7९475 णावीटा0 ० ९ 08970
5शॉाए शात्र ग्रगञा60 [09एण6 एएज९$ 0] 5९शाए, एण ८जाइटाणाआ2८55, 0
6 बराशायञगरा एी 0९९55 शत 6 एल, ?फ८, एशटिट 0
$फाधथार छटाए (क्ब्कगााबधाबा7) 507, जारी 5 था ग्रातारडाए९, तणा-
00फणव डफ्रशंक्षाएट, जाती0ए क्ाए णिग, सा णाए9९7९॥॥३8९० [70792॥
प्रांशाइट ९णारशाएबवाणा णा हिट ग्रदएर 0 5007, 5९ 52९-करणफणा
(57728 2/7)
उफ़ाणपश्ा तार कुछाल्टाभाणा णा 6९ए०00 ० पार बल-ला।एगालाट्त
(<एबए2272779) बाव छए फ़ाठ्शवाड धार ला०जाटत8९ ०0 5९
शा।हंशाशरा( दा5$ 56078 औ0ज़5 प5 बा0 6९४८००८६४ 8९ 9०0 (0 इश
टश््राष्लॉ।यातला 0 फिशक्वा।0, 50 35 (0 €7998८ एड [0 ७९८०7 5८
शा।एगा|शा९त 0फाइशुरटड एज ठप्मा एगा लींगाड
वफर पा ् डकुब0#ए 56004 ॥5 डछ्ट्ययां ७६ ए९ एम: 5 8
3/भदान्रार €0फुएआगणा 0 भर दाह इलाड 0 76९ /०8295, १ ॥।/ ० ॥
डक्ाब(-दंबाउस्बा (ही एशटट्एणा, शहणा 0 2/4६0 जग््गे, बग्पाए4-
सगाब धाही। द्व0जणॉ्त82 ण काका 7029 गाव बवागबा-टीबाए07 (शा
अछाशन्टाप्र. ऋजणएाा
९णादपथ ण (ब्ाााब उछट4), जीजा 02क्स्टा ०2णाडइ 7002 #९ एव 00
फिसबााणा ह 0णाबरण$ इप्रार छाटडशफएएणा लि 7९00) कीएड77277
हड 007/शाए बार सटल्ाल्ा उफ्र हज एण एाटडशाडाएणा 5 एटात पट
5कवाडपा ब्राहए28९ 75 7क्रात!ट्व प्राएड एटसड्टए क्ाात शीट्एाएसंए 40०0०ए८
था।, प्ा€ बाण एण पौट &प्त0 ॥8 क्0 इपावंट ९&6९5९४ प्रो 5प्रशिणरहु
व्रणाब्माएं 0 कै कनभा ण टाहशापा।लशा राव एलबाएणा
वार 7९३४४०7 जात पड 5#00ब70 85 एणफुण॑बा ब६ 587499॥3079 5
०गाश एणाीए #धाबबाबाएद१-5/एन्ा्/227474 25 व 9९४025 एथाए 3
५76 972९९ 0/€ं९६॥ा॥ 5ब्राइंए 90209 7 बॉ50 4245 जाती ए050फ्राएवों
गाव 0ट्वाटग शाटा5, जाली 00ग्राकणा छथ्फरांट एलालबाए चित तवारटए(
0 जावश्ञशंधाव नि0०ज़टटा, आय [0९ए2007/3 िप्राबए 00फद 485 ॥0
णाए झ्वाप्या 5्राश्ताए (९, सागता बाए7772 एी 5श्ाडंदवा ए0705,
॥07ग्रारभ्राठत छत हद धाणिवबड, छएशश्ाह प्रशाडंद्राणा त्ी $भ्ारईंपा
ज0ण095, 70 8 छाटटाइ९ ब्रात गाटाकों साहा 70क्20778 ए ९ (छा ४०
॥95 &50 ए9705श॥26 दाग 270 ए्रड़टं छकुक्षाक्राणाड शात शप्रश034005
ज़ाशटरश 7९९८55४६५, पटक प्बात३ (६ (38८ 0 7९80207 ८४5फ सि€
]985 607९ 4 झ्वाट्वा इड४70९ 00 0९ साफ्ठाश कराए 9९002 0५9 छ.ए0श4काहए़
णि 6 ह्िज्ञ पार था प्रा एथ्माहभाणत ण ताड$ परफ्जांधा 9
प्रगावुषट एणां( एण 809१9 उदव्ा।४ण8575 47६ 0९४९८४८५ ४0 ७६
ट्कार्शणाए #॥एकाटत 900 0च साधटनां 5एणा0द्वा3 भ0 एा075 02ए0९€5
पृशठप्ठा 8 रर्मा शाह्ागट्श एज फाएटिडशणा, 507 (9098 ॥9$ 6
$९श्शबं प्रध्था$ 9९९॥ शाहए4६8९0 ॥7 ऐ€ ४एत९ ए उ्या। 2४९, ८5७९९ ७१५
जा एद्माशबंगार प्राफएएणांगा। जण(5 तणछ) वा 22५95 प्रा० झिाशाश,
पशर09 5४३ ॥6 24056 ए उप्रर्घ7, 06 उ्या] 20गागप्राए 870 ॥९
50009 2 ]82९ छि९€ 75६ जी0एण३ 072 0ण5०९०५४ एस 5 ॥05077005
बिएश, 57 5प्यटा (एश्यात 7, ए0 वबव 70९ 8 अशारटा
९णाप्रंएप्राए70एग705 2०8 शा 4ल्खापर छ88द्राऑएधआआव 70847
गंगा एद्ा॥86 क्रीरट 200 एणा(८९0 था ता 930$ धा6 80 ए८शा ॥5
शल्झ्वट्ता था एथचाय (935) बात ६003 (938) ४९८5४0०ाआ5 ४5 &
विए्राप्ि, 8९ए०26 बात एफ उ्मा, जात .0फढा 38 6९४0078 7 पार
बात शास22५ ए छाब॒गालाए 2 0950 8प्रा९५ ए 3 &7772४(7ण$श20०१९७),
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सोभग्रात (०77०) उंधब०/025ब्ए॥ 7$ 0९ फट5४ ज३ए रण 4078-+2/[7874 (एटड
ऋटशाकथाए एण फर 5९0 भाव इससाए 0९ ९४०३८ ण॑ अउ्का5 2 762९वा
जबए 0 फाकबहबाट 06 फ्चासफा8$ छा उक्काओडा
व था। परत ४६ थी) 207फुटलंटा। 00 जापरॉट ॥6 #ठट्जणत6 0 5पक 8
शह्धायरएशा( एजा( 85 उएबुए277279 /002 जाला एफ 5ए९ था र्आशशशा
ऋछत्णा। उश्यब77877 5/002
इटाठांडा ब्बव ब5 शैलेब्राफ्ब क्याभाब44 5एक7, 0 ॥5 6९5९6
40 96 णा€ ० ९ प्राण्ट ॥70क्काप्वाब5 30 झञा९९ कमा 00फवे बडांटटत
गर९00 प्रा4९#/८९ पड गालणाऊ 5९, | ॥4ए८ शातंटवए0०प्/९वं [0 छलातिए
0५ तएए 00 27९ 9८४६ 0 पाए टब्ए4णा।॥९5 लठश ब्ि ैं ॥9ए८ एश्टा
धा2टटडशीए व हत$ (85९ ॥8 0णि 06 7248028 क्ात टबआ९0त इटोा04$ 0
002८
]5 ह्वाप्राह 07 था बषछपॉकाओं (52०77०/0 ए) बाए छक्रार ए टि
एथातटांक्ाप जार जवा0 गिा0जए5 06 एश्ा[20५5 ण शुभाएो एथी।, (0 0९
टणा7तठमराट6त श्री 60फ्राड 72222०ए5८ 75 दए0जणा९१2९ 5$
प्राएशहित $५४००॥ 788 0 $९-४ए१ए ॥205 ए तकरार 607७ भाठ
०0एशरणार धार 4 णीवाइटाग्राधबारएट प्रागमशा, 007 ण थागल तटाप्रशणा
छा ७76-80660 (2८०7702) रतताए व ए0ए0९5 छए९ जाइष्टी। 07 भाछणा
(डक पब/ 7475क्47) 7स्0 06९ २९बाए ण एप, एंाला प्रा४८८३४ ॥ 00887
0 30८ छ90ुश काध्लाणा, गह्धा। एश5ए९लाएट 2१6 ७४ थाए८ 70 ॥6€
$५००/ए4४8 250 808९5 007०शाएबा0ा 0 ग्राााव .ा प९ गरध्वप्रार
० ॥२९३॥७ 800 [2405 (0 ९(ए१मा॥9 ॥॥ 0505 5प0॥00॥06 ए[ 99$४075,
7९डप्रवाह ए 000 9९३०९ 0ए ग्रातदं 0 ९४४॥6९55 (7745/277) 270 5
एएडाव्ाएओं (डक्माड्दए) 07९0९, उश247च४३, प्रालप्रत्ा? 7ट्ववााए,
टफाठआाज, वृएटशाणाए8, पागगरताए द्वात 7शी९थाह92, 00 5६०८० 0 2000
ध्राशब्रागार 7शास्फ ए0ाह्नतेशरत 5एएाशथार बप्रशशा[ाए (792/4777477 ८422/?
व था बा50 ह्वाबॉटीएं [0 गाए 50॥5, रिक्रुटाताव िपबा उक्मा] 4
एछ30९९0 एणा।्ष 7, णि शा शाट०प्राव्राटा। 579एएण 0 प्रडटए[
$022९5000॥5
क्9५४ क75 ४004 छा0श066९ ॥कछञाावणा 300 (/रलाता 40 #फ्राक्षा
एशाह5 0 एक 00 भरी-0०प्रात 6९ए८0०फफञाशा। णी फैला एशइणाक्षाए,
दंर्था5९ पीला 500] 0 फा९ जएरक्वंतार४४८४ क्राव प्राण्रापरा।९5 एए तिशा 0एशा
शरी075, 8९४ शााएंगञीटिाट्त बात 9९९07 57क्बन०77277 ४४५४ ॥0, पीप$,
एा०रटएलारीटशत। (0 था| ४70 छाणाव02ट शर जऋ्रलाफकलाए (92००४) ० 2॥
[राए एशथाए5 जा €शशए ए१५ (उद्ब7() 0 काड फ़ाणा$ ॥0फट ब्रात
लिशंयाए (0/#404774)
बबाएएाबाए2:220///4745 /2/
गंध ी5ड0०ा, च८एछ 0टश॥ा 7७७75 77457 उ#॥ “5५फप्त&८”
साभराकााव 72शआाप्ब7व 70705
4 #लापआाए 2000
7?"€शश9९९
छग्ए0प्राब822 09 ग्राए टब0॥ाश बाशाफ॥ ४ 808 0९ पार गंदा
9९एणाणा+। $भाहडका 0645 70 घाह्ाओ (एजाफ़ा९त 76 ९०॥९० 9५
89 छाग्गायवबराबा 5॥्रा शात्त९कू भाव) फाए्ए्॥॥7, (4 ताइ20ए८ 0
खलीधा'एब ता सात 59897 | ्राबाब) परातश फ्री धरा।र एी गा
50074 'ररफा।३ जिीभिफक्ा, 35 (जा ?342९०0० 50489॥॥) "एप्प ॥5
[एशाह्टाप र्थी९त, 23९८ गारट 8 2099 ० फ्रार त्ावता एब्माशबाणा 0
दीख्ाबा77007 /004 79५ 707 एकाद [व 54्राज१ट'एद दाद 5722250९0
7 एज प्रधाभाए (९ 57९ गरा०0 शाह्टा स€ छ३5 दटॉाटाटाए दात
बात ॥९90।) 77 ९४एशा।शर 7८ $शाओंता (€ड्ां शत ज्राताट8&225$ 0 ९
बेंशात 77द्रा5स्47 (प्रया05फऊ;;ाए) ८णा(भा९6 धाधला), 07 जाला । बा
शा९87 70600९6 0 गरा्र एावद्ा ॥5$ ०6 29०304870९९ ब्रात
€॥९0प्राब2टाशां, 2 ॥892 साधं28ए0०एण९टत (00 "४788९ पड 6008 परा0
छ5त्॥9 276 (९ 728प॥ ॥5 6 ए/25श४॥ ९एए77८
235 गाड ॥5 गाए फिर गा।शाए एण पाई ा0, गत ॥5 वृप्लांट 9055ऐं९ ता 7
7089 ॥04 097९ 9९शा 806 (0 ?का€5$ प्रा€ 702 5९॥$€ 0 (6 (€४, 0
749 96 0एप्रात 42078 | 77009 006९ ७३५५
वृफ़ाड छ्ाषश्टाओं 75४70 75 93526 0॥ ९ साता क्राद्घद्वएस्4 0
छबाए4//78 85 हाश्टा ग 7९ 900९ $:24877877 ३८268, ए75!8820 700
समता एफ क9 एश्यागब 7.8 5ताएब्लाब्राफव
कब्र कछृटबा।ए 70श2॥626 0ए तट सलातता एथ्ाइंबताणगा तठी पीट शाक्षात4
ए_ए पा 86 शाध उ7पद्र० 0906 गञ |(प्रतांध कराए उ4877077 उ/0704-
बादफबदा( एफ शरण एकवा (गाग्रावाब उगत, गरात ॥8ए४2 80ऊाटव॑
फिट 008॥$ 35 06 जोदा ए6 ॥९९९ द्वा०05६८ वाल फाश्इटा।
प्राव0402८0णा ॥ शाप 5 ॥80 04526 णा प€ गिगदाहरु 0 7252३९।
5076 99 ]86 5 -पहुतं ाडाण८ 7 प्टांदा
३). 87408777077 $/079
[ गा छाटवर्ए्र प्रातकाटत (0 5ञ्नत्ताथत €8एझवां ीाएवा, ट३तटा पा
$क्षाडता, जाय रित्रा। 00०6६९९९८ छणि 9णारला, ९ >श९्ता, 0 ॥0फ्आ३
ग९ द्रा॥४९ थ॑ 6 यड्धा। गटकायाए ए शाप रण 5भाजया एण१५ दा
ए्र452८५ ॥॥ 0१2८ &/002
[ का 50 गराश्चा।ए 7620 00 72 $ 6 ५णाब, णगिशश २९३6९
सगद्ठाए), ९८९ापा एाए्टजज, धर, णि ॥5 5प:28९८४075$ ४70 0९७
ए एण्रट्णए ॥6 एष्ठाप्का [00 व 75 छझाटइटाए ठिता
९छ 08॥ 42एएफ्रग)२4 एश#र (00५07,
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॥( ए९8775 जाती ही€ जणातव /४एश7270#77" छी05९ परत छाती
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उीडियााा 0९: शायाए [0 5या पतआ्बगाब मात जो पीर 5/70ढ वर 0607
62395, 080॥007% 7, 06९ ए9782८00९ ए४8$ (0 78॥0९ ९ द//87/74 ण 5/004%
७8४ 75 0फृशाणश३ शणव />हाब24779, 242//47770974, 4 48779777977477
बाल आाएएबरछ 60748 ९ 5076 एस पार ९7८25 0 06 572८ 435
इप्रक, 08520 ० 75 58४ ए०6 +उश्बु770#एए4४१, जात जाली ८
प्रिई बसपा ॥ (९ 5/004 9225, 06 2८ उ:ब्ब77277 5/009,
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बाडबाओएएर. ईद एलशाएके प्रा .क्कर/ #52208, 7९ वर्णाफैश ०
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वाशकए परब्बापाए 8 एंद्रा ण जार !एरकार्त ६0 णिाए-फ्रार्ट शाए:85 |
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फ्रशदाफस्बद्षाएएटुंए2य 2272त 204-677 (6772772/2)
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9 5णएशका)ा, 40 कछाबां8, !] धशाशज्बाइवब, 2 ४8४०:एण००७, 3
प्राशदांब, [4 4:98, 45 [शाक्रा॥3, 46 502ा0, 37 €णा08, 8
#च9, 9 ऐ७॥, 20 (प्रशाशाणशढा3, 2 'चिद्यात, 22 200 पिला,
23 ए59५3, 24 ५४9
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ग्र0065
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69ए7850९5 एी ब9ए णाहश परशात्रा।बाव.
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फावली 37९ ०0ग्न्लंट्व जा वडाण+ ज प्रए-ण0०7१, एप ३९९ ऋषटवा।
शहग्रीटघरट 0. 8९९०प्रा। 0 फैशाए एथागरत एए $5एढ॥॥
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॥_टलातरत हालत छिप 8णा82 ४० ए८ए तटएश056फ९व फटा! ४2075 बात 7९९78
फाथाइलएटड एी था 9टाप्रशाणा, बाॉग्याशशा, [परश४, 200 जशद्काा5, >2८७2
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डं982 0 ब्ाइाबा7685 | व ए्च5 जाए बीटा धाबा, 8 02९ए डंवाटत
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गा शारेताब भात॑ ब/फाउब भाएं 50 एलसट एी! 02थ7फ भाठएं प्वा। 0
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गा 2 हा वभ्ा4 पएशक्षादवा३5 एसाए गाब/ब7८व5, ७०टए। 0एि ताथा
एशइणाब। फ्रश्टाबां वृणभा।९5$, भर हलाशभरीए शा90फ९० शत भागा
श्ञापट5
०4९ थाव ?07905८ 0 &/ए६४
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गुण-स्तोक॑ सदुल्लडघ्य, तद्-बहुत्व-कथास्तुति ।
हप4-560#व77 उत्द०/०76/79, (बर्दं 88/76:4-/9072 5/070/
228ह88श बाड़ 0 07:5बपाड़ 729ण4 ॥ग्रा, 06 (0७ 0९ शा।प८५
काटइशा ॥ 5णा९€णा6€ ॥$ शाटत 5(ए6 07 099892८ 909ए९एश', (९ 5/7४25
]. 47ब#47/48 87९ (052 ज़ंग0 ॥9ए८ टटउत$८० पिद्या 500 6 8॥ ९ 007 ५7९६
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परब्राचाबा "बाग! (जातला 09४206 एशट्कता0ा 0. शब्घण), #707/7ब्य३ (जले
25९ 46[ए5४07 बात राबटंप्टत्र) आ0 ॥रा(कउ)ब (जीघणाी 7९शपल पाल पृणाएए
णी थाधहुए) भाव ॥३ए९ इएचपारत बाना(३ (8/757/ब 00 2787/4-त9275/#%74,
बायब7/2770970, 2घ4ब77/3-80/79, 370 बागबापदब-ायाउ॒द्
ख्क्ण्वावाण2..-5
० (४९ (जल्प्रॉप-ठिपा पापीबाटा35, 2077905९6 एफ 2ैलो27 १8
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(2 9830 9८ भा़ञों ए 8४0४० 870 ०जा0टआ26 ७9 पए गराधट 7शाशाएटयडए
ण हटाए फशा 805 7१६70८5
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व ॥85 टांक्रगी९व 06 9एए0५5९ कातं शीटिट एा 5/ए8, जाग) 72845 285
णिा07%$
स्तुति: स्तोतु: साथो: कुशलपरिणामाय स तदा
भवेन्मा वा स्तुत्य: फलमपि ततस्तस्थ च सतः ।
डापह8 5077 5480०/07 /59/-78/770777478 52 (80,
अवबाश्टाब पड उप 2/9/8777927 (४(5४/2॥व ८६ 54/8:
एप्रकु०४९ एस &/ए६ 85 (0 एग्राहु ११४॥५४ 77005 870 07580 ] 76878
॥0 9८ णा८ णीलथाएए ९ एछागएश एफ कटएटा९त त९शात।, 40 शी।0॥ 00८
एाबएटा75 णींटाट8, 39 07399 70 #2€ 9652६ (006 7९ ॥70 90९
णी 06 छा9फशथ, भाव ॥2 076 एणीदाएडए 6 एछा३एश' 250 परए 0 पा8ए
ए0० ४9९८ ए८श०प्रट6 जा 6 लाथाआ€6 पी 099 प्रार तशधात् 00 जाता 0९
एाबजटा 75 ऐींस20, 9प्ा ॥5 ९शवंशा। प्र 85 8 ९8प ए 5 एा३एटश5$,
(९ 07९ ज्ञा0 फाबए5 ए०णँत 5प्रटापए 4०१ प्रएट 507९ बजाए 0 60 8004
5८९65 शांग्रता मगणप्रात 2ण5८१पटआफ एछपाएि 95 500
औ(्यात छणए709९ एी 5/एह 75 #श2९0ि९ 40 8८वपपा८ 5076 076
पृण्बा॥7९5 ण धार ९एाएट्राट20 णा€ 0 परश्चकर एपाएज़ि णा९५ ०जा 50
900 0 & ग्रापा6876९ एटशापड३ 45 ए2शआल्द्वाटव जाग दायर वाया
शिशाालाएशाह 0९ शाप्राट३ एी' शच 7शाताब 706९0 ब्रा 7एसापाए ॥5
॥47॥९, ॥2795 ॥270ए7€ (052 छोटआडइ॥८३ द्रात लंटक्चा5ट८ (0९ $0प
या शीएण॑ब #57 ए ऐश #ंशयाब277 0 धातव ए४४फएप्8 जा, त ॥8
डशं८4
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे,
न निन्दया नाथ विवान्त-बैरे ।
तथापि ते पुण्य-गुणस्मृति न,
घुनातु चित्त दुरिताउजनेभ्य: ॥ 57 ॥
6. 6क(#77277 5/002
ग्ब एपाशिबरब5-तबुय प्रा/धबढट
खब माएददुन 77047 या्वाा(- 772
80027 (2 9ए77)8-&0778-87077707-787,
2पाबाए टावविए वरप7/बरपु।॥720/779/
“0 [.00, पक्ठप छल्ाडए 0९ए0०व ० बंध्चताशश्ा, 80 परधााट'
(०0९९१ 9ए एणत्रफ्् ग7एण फ़ब्च5९, क्षा्व भा ९९ ० ॥ा8व॑ थाएं व
एटाए गींटट९0 एए शंग्रातटा 0 पी हटबंयाड टाटा, (5लावाए4
इद्याशधापकी।04 58५४) ९एशा 00॥, 0 7.00, शट फ़ाब४ गरा4ए 6
एशाशागरिा<९ ए एएए इफ्ाशार शाएट5, टॉ९द82 0ण गा705 बा0
8075 06 5३५८९ ए३ 407॥ [96९ 6९87ए८/एशा८55 ० ९ ९शां 6९९05 ”
9च उधशावाब [220 45 3 (7327, 7९९ ०0 था $९४$2 870 (९॥॥25 ए
बाॉइटलीपाटा, [0ए९ ० धा९20 राव ॥९ 78 70 072९6 शागाला 79 फ़ाद्वाइट
ण ज्रात॑ंश श00ड्वाट्गराह गा ॥थाटा ए९४६४९४ गत ॥0 धिगिंड &॥9 ०
00 एरड९$ छा 6९त280९6 #7009732०0०८26 जात 60ए00007 ॥8$ ८8०५
8 एणाजिएह शीट, जाल ॥5९ ९९०९5 6 9455 0फप्फक, जाया
0025 8000 ॥00 9€ 0€४066 0 प८ एणजाएफ़र
ड/ए4 72875 77 (ए०0-0 एशारी५ - 06९, ९९४९श 870 व€ णगाश
प्राधिशाएगं जिशकंला एशारएं श॥ी0ए95 गधा पर पी 28शाशगाणा ण 8000
च९९१$ 2ए779 3760 शफ्राशाब्रा0त ण ९ &बा774 (उशाश॥ा।07 था0
ब0८परग्राएि0॥ एस 7ए7एक, 725075 जा बॉगागगगशा। 0 छाप्टीए 59९८ा50
बात ॥९87था।ए 0।९१४7725 व 06 ९१6, ॥९ एणञञफएएश 9९0०072८5 भागांध'
70 06९ एणञञएए९6 06 पच्रा$ 5 ग्रालिशाएब] 0 प्रब्धाणानं ए०शारी।
गा रशए ज़ागाबाए ४3९९, पा त९ए0८९ ४3५5४ “ 007 करा पर प्राब्४ंटा
शात था। एफ इशफ्शा। ? व फ€ 5९८णाव 8322, 2 6९ए0८८ 5४५४ “]
बा शाोंद्व [0 [॥९९,” गद था शरद शाद 5326, ९४शा?९ 0 धर 6पोटश
रब्या॥2९5 बात जाए 6 0९ - ॥९ 58 ॥टाधभा 34 78 532८ 0९
कररध्रिशाएट 9लए€शा 06 छ० धागएपि रथ्या३८5
गा 06 ०0765 0 एथाटरीछ तटाएटव, ० घारका। 00 96 0टाएटव॑
वि0ा #एक, ॥ 78 जणा वरगगाड़ पिश 4ैलाबाएब इक्राशाबबताब, ग
ध5 उह्बाद्वा745 07 पीर (एशथाएि-0णिए पएक्षाप्द्वा35, ॥95 ॥0 ए39९० ॥॥0
ब४ए8व 0ि बाज गागंशाब सारी सर ॥5 ९छाटाट[ए [0ट्वाट्व था हि। ०
(09९086 ए तर (४६०45 पिर जाए ७फा255८४ 5 जाओ पका 789
पा5 जात थात॑ 507 9९ टै९४॥5९० बग6 छफतीटत 88 & 76806 0 पड़
एा4ए2८४ 800 0५ धार 6 2306 0 या गराटहत7 000 ॥८ट 0९2070८5
मि 0 धागा) ग्राणडाब 5076 ० एव छ्थाफँ€ड ८ --
ब्दएवएलाएप 7
पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो, ॥ 5॥
एप्पडाए ८20 खानपान 782777&74/970 (जाएणल # 5)
४४४ 99 फशक्राक्क04, 507 ० 7दाशए श्राप रित्रां छफ्ाप्रि शाप ३0प॑.
जिन-प्रियं मे भगवान् विधत्ताम्ू ॥ 0॥
/778-॥रीए:द्लए0 772 27286द्व67 77772/7477 (500८9 # 0)
४७० आबहभ्पशा जाय श्र दर) एट व शाएए्री ॥0 ॥९09 एा८
छकेडिण 78 58077
ममार्य! देया: शिव-ताति-मुच्चै: ॥ 5 ॥
ग्वााबाउक। दंहएडलरी उाएब-द्ए-ग7पटटवा7/. (50 # 5)
(0,00 (४९४ [707 ७८ छ९85$९८७ 40 &/30६ शरा९ पश्ाप 500॥7८
छ॥55$ ॥ 6 765 छा 06९ ध३00075
मति-प्रवेक: स्तुवतोउस्तु नाथ 25॥
ए्॥६ फाब्राशट६व7 5(एए४३८०-45(४ 72278 (9॥004 # 25)
07.50त! (७३५ !, ॥7ए 6९८ए00८९, 02८ ए८४०फ्९त जाता पार इबता८ट
50070 8५ ॥#06
पूयात् पवित्रो भगवान् मनो में ॥ 40 ॥
7एका एक्लाए70 28ब&2ू87877 727270 272 (5॥0:4 # 40)
0, ॥6 द्वाश्व ॥09 7,ण00 (भा0तब्फकु8004, गाए [शाटट छणाएि शाप
ग्रा6 था(व 307!
श्रेयसे जिन-बृष! प्रसीद नः ॥ 75 ॥
उकाटुरब52 27748 - श750ी8 टागएठए8 787. (57005 # 75)
(0.ण०09, शा (णाक्चायब जालावात्रा १३४ 707 9९ एछ|९४५४८० एिा 0पा
जला ऐशाड
है. $एडब्शाशीप डीए77
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मम भवताद दुरिता-सनोदितम् ॥ 05 ॥
हएएढ प5/-याबर दापटबा? दिए, काबकाब 2ीबशबाबर्द (प्ा7(4-
ड7047/477 (9028 # 05)
0 शत 84 उशलाताब। ए१5०८ए९८ 06 | ॥4ए८ घाव ४9007 7ए
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गाए €शां &द77785
भवतु ममापषि भवोप-शान्तये ॥ 5 ॥
8//ए एव 0रक्व/00०8 5476872. (शयाठ:८व # 5)
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० आशा 00 धराए०009ए 0 ॥5 हि] 0 9था85 0 शा, 00 १8८ था
66॥॥ (5गा60८93 # 2)
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शछतठ्ट्वा९इडाए८ प्राथट85८ एप छद्या5 870 0९४728$, 35 02 700 2805८
गा। 00065, 7702805 (0 70९85९0 प्राएणएशाला। ॥ ९०णआणााए भ4
इछा॥८2व6 बइलाराप्रट3, )्रब्बोेत028 9९०फाॉट भी धी€ 7णर प्रशरो१फरफ भगाए
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पडरल गाए धारल ए३५ ० बायांगाविट &६7777955 00 ए7027/4८ 570०//७
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60 020फशंटाप्र 762 00९52०9009 - एणांशाब।। बात €डाटयओं (एए८5
ण 2/[3एाव८टए7, (5007 #6)
() एट2णाएाड़ 6९57075 0ी बबगा!।शड पड (कराए777/570०), था
पा ड्राक्मावशा बात ऋुलशावछा, टला ऐड णी 8 दाबोतबरएवआ पाएड,
बएएथथा$ 00 ०८ ०76 ए5ट प:८ 8 00806 07 640९० 2355 (50५4 #
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लफ्ांगाभा0ा, 0१५९० 0 शाएट्टाशिंट छ005 07 ९ (.शा।५ एस (8/
370 2/2/(5कञा6ठ58 # 4) ॥0 (8८८5 700 8020 जा, 000, ए€ छपरा
बराव 5८८०णावंबाए 49920७ व ॥6 ॥बरपा९ ए 4 5प052॥0£ (5॥078 #
45)
एए४ ज़ाकफश॥र३ छ शक गाव 77524 ९दाडजाए ए॥ 3 $ए्रैशबा९ट,
&ा0 [९ (ज0, कार परगातऑ2[ए 2णररल९त जात ९१० णाल, भाव ॥
75 09 06 श९एछ 0० य्ञ7॥ 0 ४87079070 300790०6 (77९070000289
प्र520) 0०५ 0८ 6९0६2. जाली प्राब्पट5 णा6€ ज़ाशब्राए 76 ९ 0तश
58९८००॥6&9 (5ञञा07085 # 52 80 55)
88860 ०णा 6 शाल्ण एी उचब्दश2०व (6 0 0 वण्भागी९6
355९007), 0९ भाट(ब70९० (ग्राण0-478९) एा९ए/ ० (८5ट79॥8 0९
भचा005 प्ाशला 97092॥7९5 ॥ 3 $5फ्रडंक्राटट, जारी १97भशाए
शुफुध्धा ९०णाएब्वालएणफए ज़रात्री बला 0त्त९, ॥ प्र एट्ठा। फब्प्र 7॥0९
टा(ब्माए2 (0९-॥64९0) ए४५ एस फ॒णाणाह णिाती णाए 072८ 45९९ 75
40॥79 (500॥:85 # 98 (0 00)
एरशा ब्राल॑बा॥व९ शरण 5 क्ोटीटब722, ॥रणत-0९6९6 (5७ा6ठं(4 म
03)
छल फाड़ बा6 7णानाशाए् णिया 04 5फ्रडाआ॥02 7 5 ए00
चर83 चर वाशीरार पाबत 0 टइत्यासाबा।00, 0८४एट707 &॥0
एशाशधाशार९ (कण # 44)
बग्रा788 (70-र060ा०८) जा फरफाए एटाह25 78 8८टॉआाग।206 85 8
४फाशाशर _्षयार वृष्शा।ए (500८4 # ]9)
एिणञ्रयाए पट एक ९णा१प९ (बदाए॥/-टब2४ड) 5 पट गाए ०0९:
छब१३ ए इढाा३ 80055 6 जण]ताए 0०९था (॥श0ण८ # 7)
#फ्गा 70ता पाट5९, प्राप्रपट5 0ी 478/4768 222747725/2725, 85
20097एट7/07 3
वंटडलफ९व ॥ था। पट डॉकिकमब5 एी ९ जशिशाॉापिना ्रवश्राएईबा३$ 7
प6 #00%8, कार थ विद्याइटपटड तशाणाइावाएट ए फक्राड एटट2 मधपदााह
जणड8ह 5 , ए 8 ज8५, #शाणाएगाण्प्र जाए उ्ाय्ब/777972 0, ॥6 एढा।
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5 ९55शां।ग 0 परातशाबटट बलाशा8ह5 टावाए [0शब95 20006, 06 जा
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८2708, ण पर गह्लॉ। 00ण4प)्ल
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बता777एटीए7 5
पूर्व पाटलिपुत्र-मध्यनगरे भेरी मया ताडिता
पश्चान्मालब-सिन्धु-ठकू-विपये कांचीपुरे बैदिशे ।
प्राप्तोडह करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकट
वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दू लविक्रीडितं ॥
पद 747प7/2ब-72बर्द0728272 2/ट7 सादाद्व ध८ा:2,
7#ट्क्शपबलिएब-डापर्0-०/४-॥728/2 #2/27एार एलवाडइमट
2/43760-8/877 ६4477 08/00/2747 शर्द0//2/877 5977/:2/2777,
46877 एट्काशशाराएडीयएा 7472/2862 5474 7/877/7276६/77
# गिल | 0९ए प्रप्र एफराएटा पर (6 तटदाए ण धार लाए ० एबधाएप्0
क्ावं वाट गा फिट डंत्रा25 0 एन, जात, ?एपाबक, /4027एथता,
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ए059९गाह५ प्रात 3 66ञञा८ (0 क्राट३0 जरा ादाश्ाणा5 वरल्ट्टएछ, ॥ था|
70३ #0प्रात 0 हाए, 70क7ागइ 06 3 ॥0ा
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व 'ए३$ शा$ वर छुपा, ठथेग्राए रण प्रा०प्रड्ाई, ०जाशलाणा, व्रणाश्राए
बात ९९॥४ ए जाशाएड एसी 07 णाश$ बा ॥2 ए$ ४7९६० एल
बात ग्रीप्रशाटह ए०कां९ वृुणाट ९2४आए ?ए742८ 70 8९४72 00 एच 082८5,
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णएीाए5श00९55 0 छ0४0८क॥२८ [878०982८ एच८व 0५ ॥5 30ए25४07८5४ पाबा
एा002०79, ए३5 0९ 728807, जार ९एशा ॥5 30ए९:३४६725 जा दि)
7ल्क्र्ट ति ग्राप्र
# ९06₹टएट 8९३2०7७७07 0०7 760॥0 $3ए2८८८४5४ 0 ट6टाह्वाएथ
5इ्गाधाांशक्षा3 छाडंड 7 5777/2(70 #5467) ४ 5शावएाा02४६०8,
[ा0एजा) 88 77/75#सट/व ./85745488 जी॥ए) 72805 85 00ए5
बन्द्यो भस्मक-भस्मसात्कृतिपदु: पद्मावतीदेवता -
दत्तोदात्तपद-स्वमन्त्र-वचन-व्याहूत-चन्द्रप्रभ: ।
आचार्यस्स समन्तभद्व-गणभूधेनेह काले कलौ
जैन वर्त्म समन्तभद् मभवद्धद् समन्तान्मुहु: ॥
46.... $ह7700070 /007
एप्रबशद।0 82845772/8-2॥2577858/:८7278/फ7 2द407द्क7 रटा॥/8-
प्रं४४०7४/ट्टबं१-डकायहए(2- एड८टव79-77/77/2-८च770/29/272/2/9/7
बला 745859 उद्दगाा7र|ब?स्2८/4-6297422/77/]727208 /2/2 (॥/87,
#ब्बाए धान उ47747//2/2478 77807472/27कदाबाए
उब्च77977/9:27777/07/
प्रत्माथकाह€ $ $द्वागा308073, ;0 80 $एीट/ट0 700॥ 052८85८
८4४९6 //9577748/8 (जोपरोंट ण गर्मी एशाबा॥28 88 & प्रजा ऐप ब्चत ॥[
922९6 9 भा$ टाटरएटसाट5$ ऐफ 6 0 2780९ ० 80306९55
एबवंगाबएबा। ॥6 8८वए०77९७ ३ गाशा ए0॥त0ाा बाते आदध्राबटा26
(गाधावाबफाब078 उता९शाता9 099 5 प्र [९ ए0705 (7080
7०चश९) परश्रा०प्रश्ी। $ब्मागा।ब03074, ॥९८ |राशएब्वां अटोदाए॥ छा
गराड 0फ् रण 522९5, 06 उ्ा।43 शी8005 00?ट/0 ९एशा प्रा [5
ए९०700 07 #4//:2/35$ ०९श९॥ 746९ ग7072 79लाटलीटाबी 800 ॥रतीएशाए॥।
शणि था!
गा 6 जिद ॥07९ #00ए९ 78008, 700007 ॥95 ए9€शा 780८ 0
$0॥स्6 ऋ्श्टाभ ९एशा5 गा #6 6 ० 9॥0 इच्ागातब्र80405ए६३
$एश्ाा। उग्रभाक्कं।264 जब५ ३ 52779 48727599798 (00
बाण 77509) एग0९ तछ दिल ज़३5 पार (जाए ण ए/80एए थिण?
प्रा ह6 प्रला अब एी शशाभ्याधरद्रावबब [॥0प्र्टी) #॥९ ए३$ ४009८6
जाए 06 ॥50940770९/(॥ एि 4 450407) प्रश्ु९अ४०, पल ॥९ ३५ एएप८१
०णा एज धार 6९आ6 (0 छणरि ॥ा$ 507 4 ॥्र्माएश्ट ९ 58 0
एपफ्आ॥रट प़्लाकटाए, क्षात शब्वा 5 जाए, ॥6 06 गए ॥शशान्ाा॥ 0९0 00
ति 08 60 ८ ॥005८॥0667$ अंब8८ (एड फ 2॥ पा ताश्ञए
आलशा6ण कट शी पड प006 800 ९३०५३ दिक्काता। ($00707॥ &89५॥॥)
0वग्रारव प्र३९ ३६ ॥ 20887720872 ४६2९८ ॥॥ 0॥6 0 भाई 74478 शिशाए
जाई ठजा प्रात00एलाणा, ॥९ ४७5५ 580
कांच्यां नग्नाटको5हं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्ड-
पुण्डोड़े शाक्यभिक्षु; दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राद ।
वाराणस्थामभूव॑ शशघरधवल: पाण्डुरांगस्तपस्वी
राजन यस्याउस्ति शक्ति. सवदतु पुरतो जैननिग्रन्थवादी ॥
47 796709/0-878772 स्ाबाबिकाक्ाए2/बए।47297572 2477:
77447,
#7पाव/ए04/6 5989928/7/577./7 धं४5॥7प7278&472 77752/8227077
खप्णाएट्यंणा।.. 7
कगापीयड।
ए्बाबियबउाबाा2 87 7 ए्ापा 34548 /#बाब2/9/87 24747: 008 -
उबएबहाप,
72287 प्ररड़ाय्रड7 34677 58 ए्त20ए 2078/0 उदहाधाएाब72 पता
जा हृगाला। जव$ भा णालं30 (०(6977/278) ४88९ शात्री 0009 8णा20
जाति त0$0 पर 7.ब्राएंपश, ॥ इत्तटश्नाट0 प्र 700ए जाते शी९5 (छ्ास्ठंप
आप, एडाट 0 जार) या एजावाएकाट, | एछ१8 3 508/5ब 277/5#0
(3 3050काह राणा) पट लाए ण 08४99ए, | ए8$ 8 प्रशादाटवा।
शात्प्रा? #शट्टा 000, ॥0 शा फएक्कक्राबडा, |] 9९टक7॥८ 8 जरा।॥2 004८6
35८2८02 0 ६! ए/ह0502ए2 ४85 ह2 289820ए 870 ए0चष ६0
तल्बां८ जाए चाट, पाए 60 50 ॥ें था। 8 खा गरफद्वाग7/द्वस्षता
(ए॥48०१८6) 0855णा|८5$ ज़ाटबलाश
पफर बककएएर 2844 530 897०45 (00 48ए2 9९९॥ 806725520 9ए 9क्वाता
ध्द्राक्रा।ध्रा।त424799 प प€ ९007 0 8 धा३ (४४ ०2८, प्रातंश
एशांबा) लाएप्रा/डआाए2ट$ 880 ९0णफएए|ध05, ॥6 48024 वराशियाएं ठ्5
बा तालिया। 025 उठ पाए ज़टलार थीं जरालक्शांब। सलट ज़ब$ था
०णाशालाए कश्ाशभा26 8 उ॥्त4 $क्या। फ्रा0 तर लात
एफ्रशर ७ भाजीश 7847३, जाली पाए0ज5 शी णा था प्राफु॒णां्रार
पालवंशा: एी गरा5$ ॥6 775 १एए९भ5 00 ॥98ए८ट फटशा ऋ्रणतटा ॥ 06 ए0प
ण पाल कयाए ए &वशा
आचार्योहं कविरहमंह वादिराद पाण्डितोहं
दैवज्ञोह भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोहं ।
राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलाया-
भाज्ञासिद्ध: किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोहं ॥8॥
दलबाए0/ीवाए ईद्वायाबािबाा#/वाए ध्र78/ 2870700/477,
बरशशक्ा70॥877 0/75/488/787708/4777 77497707/435/8707/0/8777
72/27725क77 728/44/77/48/48:87772/772/4(87777/4 78 -
ग्र्ाएबडर्ववीयरी 7270 048/2074 5777ब:#/28782/07477
(0 ६&णड! 0चज धा$ टडा, जंगली 5 एट्काड़ 3 श्ञातेट या णिव॥ए
ब१लालेट0002बा5 ध०फाद ॥, वें का का 82॥%77३ (777098 2८82९ै४८),
4 ईद (3 छ०९६ ८3०४४ एी 0णाकुणएडपह 90ए९2॥5 ऋ्रणाांक्राटणहॉ१), &
ए77/8 (काडएु धाणाएुं (क्षब्रांशाड5 ण ऋटब्देव्श5), 8 एथा०वा (णा८ट
[8 उचब:ब&77207 ई/007
पाए कृपाएयें छसश$), 4 42808 (था 35700 82), 3 रक्त
(एएडटा॥0), 4 279770762 (009 ए परक्मा7385) ॥॥0 ज़ो।8 07९,
प् खा था दगाब-2दव/8 (0९ जी]056 0ण्रगभा(5 बार बरजए४ टकाारव
000 886 80०१0655 $495प60 (2०00९8$ ० [९४ग्राणहू) ॥85 0८5८,
शशज खावाए 9९809792८0 ९ 2806 णा 76
#37॥97ए9शाटव, 8लाबा94 $क्या॥79/॥98673 0९ए7९०फ९९ 20957779/8
(8285९, 789 9९ 85 8 ९००॥8८९४९८॥८2 07 त९९१5 ० था 94४ जात05 0
त5 005285९, 0ए९ए९/ परी 0०॥९ 799 €ढ, ०0९ ॥$ ४छए३५5 गैपाष्टाप
एगगंड०2एश, 2॥0 ॥0ए प्रपली, णा९ ९४5, ॥ थी 82९४5 एप्प एए 7 ए25
70 705570९ 0 थगर ६0 8९ 70 एस 5 दा528५९, ज7९ 46 ए३5 ॥0 (९
8080९ 06 $8220009, ४0 ॥€ 39ए9704ट८६ ॥58 हपघाए भात। 7८2828९0
ए9श7755700 (47९ ए09 53//2/4708 (8४८ प् ९एश५ शाह 200 7स्2042
3706 छक्मा। णि' 6९807 (0 207९) 809 प.्रट 75८ एणए, एश0 200प0 07252९
फ€ पिए्ट 230 84082 0९ 28.0०7॥77 भा। 8079 एक ऊ5िशा।क्रा(४009479,
7्पिड८व गाय एलशापा5उड0ा (0 णरावद्ाबाद९€ 57/22/7478, ॥57280 ॥८
एटाजा।€6 रा 0 सर एछ 78॥777472 5328९7000 0 0८ 5285९ 7६5
९ जलिह 20पर6 बच (2 एए ॥९ $388९०0008 [8९ 0प्ा0त
९०णाफएपॉडणा$ काएत शाटप्रा॥5(8025, ॥९ 800फ(९० एद्यात0प05 805८४ 0 &
$80#0 8४0 ए8एथा। [णा $0प, 7९8९2८० 698४॥ा प प्र 7णा पा
पएक्कभरा89, ॥3 ॥6 हुए ए॑ ३ 39059 54०7०, ॥९ शाज्ञाटठ फ€ 5क्रारक्
ग्राकाद्षा ए &गए् आएएग00 िशर 00078 भ॑ ॥6 प्रगरा7गट56 ब्रा0 प्रा
ण 4580 (णॉीलाएह5) ०0शा३ णीशिल्व 00 [06 0श(ए ९ ला पी ॥
80राशा०श ॥6 ९0००० 9था(4९९ 07 ६05८ 0ीथटिए/085, 7 089 5208 ॥5
प्रणाएश छह ग्एछा०१०ा९१ पर फ्ाबश/ञला। ज' हर फॉर 200 [00
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वंशस्थ छन्दः
स्वयम्भुवा भूत-हितेन भूतले,
समज्जस-ज्ञान - विभूति-चक्षुषा ।
विराजितं येन विधुन्वता तम-,
क्षपा-करेणेव गुणोत्करै: करे: ॥ ()
अन्वयार्थ, (स्वयम्भुवा) जो अन्य के उपदेश के बिना दीक्षित हुये थे,
(भूतहितेन) प्राणियो के लिये हित करने वाले थे, (समज्जसज्ञान)
सम्यग्शान के (विभूति) वैभवरूपी (चक्षुषा) नेत्र से युक्त थे तथा
(गुणोत्करै करै ) गुणो के समूह से युक्त वचनो के द्वारा (तम:) मोहरूप
अज्ञान को (विधुन्वता) नष्ट करते हुए (येन) जो (भूतले) पृथ्वीतल पर
(गुणोत्करै करै:) गुणों से युक्त किरणो के द्वारा (तम:) अन्धकार को
(विधुन्वता) नष्ट करते हुए (क्षपाकरेणेब) चन्द्रमा के समान (बिराजितम्)
सुशोभित होते थे।
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प्रजापति य॑: प्रथम॑ जिजीविषू:
शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजा: ।
प्रबुद्ध-तत्त्व: पुनरद्भुतोदयो,
ममत्यतो निर्विविदे विदांवरः ॥ (2)
22
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अन्वयार्थ; (य:) जो (प्रजापति) प्रजा-जनता के स्वामी थे। जिन्होंने
(प्रथम) कर्मभूमि के प्रारम्भ मे (प्रबुद्धतत्त्व:) लोगों के कर्म तथा उनके
'फलों को जानकर (जिजीविषू:) जीवित रहने की इच्छुक (प्रजा:) जनता
को (कृष्यादिषु) खेती आदि (कर्मसु) कार्यों मे (शशास) शिक्षित किया
था और (पुनः) फिर ( ग्रबुद्धतत्त्व:) हेय-उपादेय तत्त्व को अच्छी तरह
जानकर (अद्भुतोदयः) आश्चर्यकारी वैभव को प्राप्त होते हुये जो
(ममत्वत ) परिग्रह विषयक आसक्त से (निर्विविदे) विरक्त हो गये थे
तथा जो (विदावर:) श्रेष्ठ ज्ञानी थे।
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विहाय यः सागर-वारि-वाससं,
वधू-मिवेमां वसुधा-वधूं सतीम्।
मुमुक्षु-रिक््वाकु-कुलादि-रात्मवान् नि
प्रभु: प्रवनक्नाज सहिष्णु-रच्युत: ॥ (3)
अन्वयार्थ: (य-) जो (मुमुक्ष:) मोक्ष के इच्दुक थे, (आत्मवान्) जितेन्द्रिय
थे, (प्रभु:) सामर्थ्यवान् अथवा स्वतन्त्र थे, (सहिष्णु:) परीषह आदि की
बाघाओ को सहन करने वाले थे, (अच्युत:) अपने ब्रतो मे दुढ थे,
(इश्वाकुकुलादि) इश्ष्वाकुकुल मे सर्वप्रथम थे और जिन्होंने (सतीम्)
पतिव्नरता (इमाम) इस (सागर) समुद्र के (वारि) जल रूप (वाससम्)
वस्त्र को धारण करने वाली (वसुधा) पृथ्वीरूपी (वधूम) स्त्री को (सर्ती)
पतिब्रता (वधूमिव) स्त्री के समान (विहाय) छोडकर (प्रवव्राज) दीक्षा
धारण की थी।
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स्व-दोष मूलं स्व-समाधि-तेजसा,
निनाय यो निर्दय-भस्म-सात्-क्रियाम् ।
जगाद तत्त्वं जगतेडर्थिनेउ5ज्जसा,
बभूव च ब्रह्म-पदा-मृतेश्वर: ॥ (4)
अन्वयार्थ: (य-) जिन्होंने (स्वदोषमूलम्) अपने समस्त दोषों के मूल
कारण को अर्थात् कर्मों को (स्वसमाधितेजसा) निर्विकल्प समाधि के द्वारा
- परमशुक्ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा (निर्दय) निर्दयतापूर्वक (भस्मसात्क्रियाम्)
समूल नष्ट (निनाय) कर दिया था तथा जिन्होने (अर्थिने) तत्त्वज्ञान के
इच्छुक (जगते) जीवो के लिये (अज्जसा) यथार्थ (तत्त्व) जीवादि तत्त्वो
का स्वरूप (जगाद) कहा (च) और अन्त मे जो (ब्रह्मपदामृतेश्वर-)
मोक्षस्थान के अविनाशी-अनन्त सुख के स्वामी (बभूव) हुए।
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स विश्व-चक्षु वृंषभो5उर्चित: सतां,
समग्र-विद्यात्म-वपु निरज्जन: ।
पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनो,
जिनो जित-क्षुल्लक-वादि-शासन: ॥ (5)
अन्ययार्थ, (विश्वचक्षु)) जिनके केवलज्ञान रूपी नेत्र समस्त पदार्थों को
विषय करने वाले है, जो (सताम्) इन्द्र आदि सत्पुरुषो से (अर्चित:)
पूजित है, (समग्रविद्यात्मवपु ) समस्त पदार्थों को विषय करने वाली बुद्धि
ही जिनकी आत्मा का स्वरूप है, (निरज्जनः) जो निर्मल हैं, (नाभिनन्दन:)
जो नाभिराज के पुत्र है, (जिन.) कर्मरूप शत्रुओ को जीतने वाले हैं और
(जितक्षुल्लकवादिशासन.) उिन्होने क्षुद्रवादियो के शासन को जीत लिया है
अथवा (अजितक्षुल्लकवादिशासन:) जिनका शासन क्षुद्रवादियो के द्वारा
नहीं जीता जा सका है (सः) वे (वृषभ:) वृषभनाथ भगवान् (मम) मेरे
(चेत:) चित्त को (पुनातु) पवित्र करे।
38 757४2-08/57फ7 77757०20/0/72(87 5268777,
उद्दायबद्राब-पर्त्रधा4-727ए/-उउबय]] 24
एप्ानापए टल॑ए कान 740#7787079870,
770 778-६४77//3/:8-7847-572598727 (5)
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उपजाति छन्द
यस्य प्रभावात् त्रिदिवच्युतस्य,
क्रीडास्वपि क्षीव-पुखार-विन्द: ।
अजेय-शक्त भर्भुवि बन्धुवर्गश्
चकार नामाउजित इउत्यबन्ध्यम् ॥ (6)
अन्वयार्थ: (त्रिदिवच्युतस्य) स्वर्ग से अवतरित हुए (यस्य) जिनके
(प्रभावात्) प्रभाव से (तस्य) उनका (बन्धुवर्ग:) कुटुम्बि समूह
(क्रीडास्वपि) बालक्रीडाओ मे भी (क्षीवमुखारविन्द:) हषोन्मत्तमुख कमल
से युक्त हो जाता था तथा जिनके प्रभाव से वह बन्धुवर्ग (भुवि) पृथ्वी
पर (अजेयशक्ति-) जिसको कोई जीत नही पाता ऐसी शक्ति का धारण
रहता था और इसलिए उस बन्धुवर्ग ने (यस्य) जिनका (अजित.,) अजित
(इति) यह (अबन्ध्यम्) सार्थक (नाम) नाम (चकार) रखा था।
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अद्यापि यस्या-जित-शासनस्य,
सतां प्रणेतु. प्रतिमद्भ लार्थम्।
प्रगृह्मते नाम पर पवित्र,
स्व-सिद्धि-कामेन जनेन लोके ॥ (7)
अन्वयार्थ: (अजितशासनस्य) पर वादियों-अन्य मतवालो के द्वारा अविजित
अनेकान्तमत से युक्त तथा (सता प्रणेतु:) सत्पुरुषो के प्रधान नायक
(यस्य) जिन अजितनाथ भगवान् का (पर पत्रित्र) अत्यन्त पवित्र (नाम)
नाम (अद्यापि) आज भी (स्वसिद्धिकामेन) अपने मनोरथो की सिद्धि के
इच्छुक (लोके) इस लोक में (जनेन) जनसमूह के द्वारा (प्रतिमगलार्थम्)
प्रत्येक मगल के लिये (प्रगृह्मते) सादर ग्रहण किया जाता है।
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यः प्रादु-रासीत् प्रभु-शक्ति-भूम्ना,
भव्या-शया-लीन- कलइु-शान्तयै ।
महा-मुनि मुक्त-घनोष-देहो,
यथा5रविन्दाभ्यु-दयाय भास्वान् ॥ (8)
अन्वयार्थ : (मुक्तघनोपदेह:) कर्म रूप सघन आवरण से रहित (यः) जो
(महामुनि:) गणघरादि देवों में प्रधान ऐसे अजितनाथ भगवान् ( भव्याशयालीन)
भव्यजनों के हृदय मे सलग्न (कल्ड्डशान्त्ये) कर्म रूप कल की शान्ति
के लिये (प्रभुशक्तिभूम्ना) जगत् का उपकार करने में समर्थ वाणी के
३0 उीखबएबका727प7४ $/0709
माहात्म्य से (तथा प्रादुरासीत्) उस तरह प्रकट हुए थे (यथा) जिस तरह
कि (मुक्तघनोपदेह:) मेघरूप आच्छादन से मुक्त सूर्य (अरविन्दाभ्युदयाय)
कमलों के विकास रूप अभ्युदय के लिये प्रकट होता है।
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येन प्रणीतं पृथु -धर्म-तीर्थ॑,
ज्येष्ठं जना: प्राप्प जयन्ति दुःखम्।
गाड्ु हुईं चन्दन-पडु -शीत॑,
गज-प्रवेका इब घर्म-तप्ता: ॥ (9)
अन्ययार्थ- (येन) जिन अजितनाथ भगवान् के द्वारा (प्रणीत) प्रकाशित
(पृथु) अत्यन्त विस्तृत एवं (ज्येष्ठं) श्रेष्ठ (धर्मतीर्थम्) धर्मरूपी तीर्थ
अथवा धर्म के प्रतिपादक श्रुत को (प्राप्प) पाकर (जना:) भव्यजीव
7476 >74 डल्वश्ब्य्ब्खा 3]
(दुःखं) संसार परिभ्रमणरूप क्लेश को उस तरह (जयन्ति) जीत लेते हैं
जिस तरह कि (घर्मतप्ता:) सूर्य के आताप से पीडित (गजप्रवेका:)
बड़े-बड़े हाथी (चन्दनपंकद्भुशीत॑ं) चन्दन के द्रव के समान शीतल
(गाड़हद) गद्भा नदी के द्रह-अगाघ जल को पाकर सूर्य के संताप
से उत्पन्न दुःख को जीत लेते हैं।
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3450 )
स ब्रह्म-निष्ठ: समर-मित्र-शत्रुर्,
विद्या-विनिर्वान्त-कषाय दोष:।
लब्धात्म-लक्ष्मी-गजितो-जितात्मा ,
जिन-भ्रियं मे भगवान् विधत्ताम् ॥(0)
उे2. ठबबुएबा7270 ३/0072
अन्वयार्थ, (विद्याविनिर्वान्तकषायदोष:) जिन्होने परमागम के ज्ञान और
उसमे प्रतिपादित मोक्षमार्ग के अनुष्ठान रूप विद्या के द्वारा कषाय रूपी
दोषों को बिल्कुल नष्ट कर दिया है, जो (ब्रह्मनिष्ठ-) शुद्ध आत्मस्वरूप
में स्थिद हैं, (सममित्रशत्रु:) जिन्हें मित्र और शत्रु समान हैं, (लब्धात्मलक्ष्मी )
जो आत्मा की अनन्त ज्ञानादिरूप लक्ष्मी को प्राप्त कर चुके हैं और
(जितात्मा) जिन्होंने अपने आप को जीत लिया है अर्थात् जो इन्द्रियो के
अधीन नही हैं (स-) वे (अजित: भगवान्) अजितनाथ भगवान् (मे) मेरे
लिये (जिनश्रियम्) आरन्त्य लक्ष्मी-अनन्त ज्ञानादि विभूति (विधत्ताम्)
प्रदान करें।
548 874977772-07576/797 &87778-7777/72-572/7707;
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49064/40776-/42/57777-73/7/0-77/88774,
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΋/ - चि९05 6 068 2९, पर्वश३ - 0728९, गा
ए7/8 -+ धागाताौ॥20, #45/4)8 - 98550॥7, 605797 - दिप्र(5,
4402479/774-9./57777 - 80778 00(8॥2८06 [6 |8८8॥॥, 87647 -
कक ऑन उन) जालावा3, 78778 - ९०0770॥0 0 ए€ 8४शा,
प्यब-उआापएरबाए -+ सारी /2/5777, 772 - णा 76, 2/42दवाद्व2 -
70ण्रव 0 (004, 46877 - 749 0045८ 92809
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फए€फफ्रध्शा ८955 00 0९5, 300 ज्ञर0 १8$ ०९ए०7८ ०चकाश 0
पार बट्शाणा 0 ब747/9 29/75/9979 (7787/9-/79772, 2707/9-
चंबाडस्बााव, बगाब72/4-5०४74 070 #782/2- 07779), 32700 ॥95
एणापृण्टाटव पट 5चछा इाग्रट्त ९णाफ्रॉटांट ९०ग्राएणं 0एछ बा 5
$शा३८६, 4 छा, 7729, (८ 5६7९ गा 2]70 पक) उराशा।ा4, 9९
दाव शाठपश्ी। 70 7६४0 € दाएबा(एब /8577007 0 बघद्वाए/4
८2/०5/27४4 ०7 776
3
500 5087707989ए98 उ7793 5व9979॥977
इन्द्रवज्ञा छन्द.
त्यं शम्भ्वः संभव-तर्ष-रोगै ,
संतप्य-मानस्य जनस्य लोके ।
आसी-रिहा-कस्मिक एव वैद्यो,
वैद्यो यथाउनाथ-रुजां प्रशान्त्ये ॥ ()
अन्ययार्थ - हे भगवन्! (त्व) आप [से भव्य जीवो को] (शभव-) सुख
प्राप्त है [इसलिए आप शम्भव हैं| आप (इह लोके) इस ससार में
(सभवतर्षरोगै-) सासारिक भोग तृष्णा रूप रोगो से (सतप्यमानस्थ) अत्यन्त
पीडित (जनस्य) प्राणियो के लिये [तथा 5 उस तरह] (आकस्मिक एव)
फल की अपेक्षा से रहित (वैद्य-) वैद्य (आसी:) हुए थे (यथा) जिस
तरह कि (अनाथरुजाम्) अशरण मनुष्यो के रोगो की (प्रशान्त्यै) शान्ति
के लिये (वैद्यः) धनादि की इच्छा से रहित बैच्य होता है।
(श्बाए उम्क्धा2मबारबस् 527777/472-47574-06477,
इब्मा/ब24-7787708 4 /8778578 /0&2
बडान74-2॥77/4 274 एकाप्रुएए,
प्रबारद0 अबास्4-74/4-7पुकयए 2745#2877787 (])
३4. ल्9क्र॒ुक्काएब 50
#एब0- 7 ० 070, #ऑक्यग?/दाि27 - ॥40 द्राका)९6 02 055,
बक्ाशरीबद - जएणाविर फॉटबड0725, ा5उ2-687 -बरा१0९3 ०
ज़बा। 800 0९8९5, 347/8/2):2-77248709278 - तशशशा$शैए ४रवशशिा?
7१090, /87785/8 - फापच्रदद्वारट छ0लाए5, /0/2- ।6 ८ एण6, 2577
>ज्रटा2, 78 - पड, 2६85777/8 - 52255, ८ - व९, स्वा:ी2/7 -
घढ्थेटा 0 ९9098, एक्रा/0 - ज्रात0प थाए क्९्शञार ए ए2टफ्राबाए
शिधा5, 78/79 - 35, ॥78009-7ए/8777 - ]000 &70 0८7255$ ०९७85,
ए2857487677- 0छि छ9280९ ४0 ०0्राणा 0
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0व7.00, 7707 & 7477079278, 0, 7007 वीशी एा०पएड्ा।
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अनित्य-मत्राण-महं क्रियाति:,
प्रसक्त-मिथ्या5ध्यवसाय-दोषम् ।
इदं जगजू-जन्म-जरान्त-कार्त ,
निरज्जनां शान्ति-मजी-गमस्त्वम् ॥ (2)
अन्वयार्थ, हे भगवन्! (अनित्यम्) नश्वर (अत्राणम्) रक्षक रहित, (अह
क्रियाभि:) मैं [ही सब पदार्थों का कर्त्ता धर्ता हूँ, इस प्रकार अहकार
ममकार की] क्रियाओ से (प्रसक्त) सलग्न (मिथ्याध्यवसायदोषम्) मिथ्या
मतिज्ञान रूप दोष से दूषित तथा (जन्मजरान्त कार्तम्) जन्म बुढापा और
मृत्यु से पीडित (इृद जगत्) इस जगत को (त्वम) आपने (निरज्जना)
कर्म कलड्डू से रहित मुक्ति रूप (शान्तिमू) शन्ति को (अजीगम.) प्राप्त
कराया है।
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शत-ह॒ृदोन्मेष-चलं हि सौख्यं,
तृष्णा-मयाप्या-यन-मात्र-हेतु: ।
तृष्णाभि-वृद्धिश्च॒ तपत्यजसंं,
तापस्तदा-यासय-तीत्य-बादी: ॥ (3)
अन्वयार्थ (हि) निश्चय से (सौख्यं) इन्द्रिय जन्य सुख (शतह॒दोन्मेषचलम्)
बिजली की कोंद के समान चज्चल है तथा (तृष्णामयाप्यायनमात्रहेतु:)
तृष्णा रूपी रोग की पुष्टि मात्र का कारण है। (च) और (तृष्णाभिवृद्धि )
तृष्णा की चौमुखी वृद्धि (अजस्रं) निरन्तर (तपति) ताप उत्पन्न करती है,
एवं वह (ताप ) ताप (तत्) उस जगत् को (आयासयति) कक््लेशों की
परम्परा द्वारा दुःखी करता है (इति अवादी ) ऐसा आपने कहा था।
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बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू,
बद्धश्च मुक्तश्च फल चर मुकते.।
स्याद्वादिनो नाथ तबैव युक्त,
नैकान्त-दृष्टेस्तव-मतोउसि शास्ता॥ (4)
अन्वयार्थ, (हे नाथ) हे भगवन्! (बन्धश्च) बन्ध और (मोक्षश्च) मोक्ष,
(तयोहेंतू च) बन्ध और मोक्ष के हेतु (बद्धश्च) बद्ध आत्मा (मुक्तश्च)
मुक्त आत्मा (च) और (मुक्ते-) मुक्ति का (फल) फल यह सब
(स्याद्टादिन ) अनेकान्तमत से निरूपण करने वाले (तबैब) आपके ही मत
मे (युक्त) ठीक होता है (एकान्तदृष्टे: न) एकान्तदृष्टि रखने वाले के मत
न् ठीक नही होता (अत-) इसलिए (त्वमू) आप ही (शास्ता) तत्त्वोषदेष्टा
।
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शक्रो5प्य-शक्तस्तव पुण्यकीतें:
स्तुत्यां प्रवृत्तः किमु मादृशोउज्ञ: ।
३8. 'एवएब्राएऑप 5006
तथापि भक्त्या स्तुत-पाद-पद्मो,
ममार्य! देया: शिव-ताति-मुच्चै: ॥ (5)
अन्ययार्थ, (आर्य) हे आर्य' (पुण्यकीतें:) पुण्यवर्धक स्तुति से युक्त
(तव) आपकी (स्तुत्या) स्तुति मे (प्रवृत्त:) प्रवृत्त हुआ (शक्र* अपि)
इन्द्र भी जब (अशक्त.) असमर्थ रहा है तब (मादृश:; अज्ञ: किमु) मेरे
जैसा अज्ञानी पुरूष कैसे समर्थ हो सकता है? [यद्यपि यह बात हे]
(तथापि) तो भी (भक्त्या) तीव्र अनुराग द्वारा (स्तुतपाद पद्म-) स्तुत चरण
कमलों से युक्त आप (मम) मेरे लिये (उच्चै:) उत्कृष्ट (शिवतातिम्)
यथार्थ सुख की सन्तति को (देयाः) प्रदान करें।
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4
507 /७४०॥77870978 >78 39[98पफ्क्षाधा।
वंशस्थ छन्दः
गुणाभि-नन्दा-दभि-नन्दनो भवान्
दयावधूं क्षान्ति-सखी-मशि-श्रियत् |
समाधि-तन्त्रस्तदु-पोष-पत्तये,
द्येन नैग्ग्रन्थ्य-गुणेन चाउयुजत् ॥ (6)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (गुणाभिनन्दात्) अनन्तज्ञानादि गुणों की वृद्धि होने
से (अभिनन्दन:) अभिनन्दन इस सार्थक नाम को धारण करने वाले
(भवान्) आपने (क्षान्तिसखीं) क्षमारूप सखी से सहित (दयावधूम) दया
रूप स्त्री का (अशिश्रियत्) आश्रय लिया था (च) तथा (समाधितन्त्र:)
धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान रूप समाधि को प्रधान लक्ष्य बना कर
(तदुपोपपत्त्ये) उसकी सिद्धि के लिये आप (द्वयेन) अन्तरद्भ और बहिरदड्ग
के भेद से दोनों प्रकार के (नै्ग्र्थ्यगुणेन) निष्परिग्रहता रूप गुण से
(अयुजठ) युक्त हुए थे।
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० कट गरगागाहुत्रिं 600९ एणी 2फ्रागरातव॑क्षा4, 28087 - १0प 0
पृप०ए, /ंबुएब-एबबपाए- बिवफ 2णाफुब्माएणा 4४१४ (००७8$४0०7),
:६5#476-824/777 - ॥8078 एाग! गधा व८00 078४272८55,
बडाउ/ाएएडा - $0एडवा। 0 000० शारदा 0, 54749777-/87023/7 -
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24/4722- 0 बलारएट वि, (728४2९78- 90० 77९४ णीप्राधाबी
200 ९राशाबां, खब7:227427072-677278 -+ 579९९ तुपएक॥ाए ०6
बड0 0९ तरबटाधला।, 28 - था0, 47ए7/2/- बटवृप्पराटत॑
0],00, 0 8०८० ० बा] 70णा6 ह0एण0॥ प्रा #/2/8-7774740/0
(7976 |09९4726 ॥(९) वृण्धा।९5$, ['00, ९ ॥000 ०0 धा९
प्रल्गा।ह्रप्तिं ग्रशावर ए #शगधभाव॥ब3, 50787 शटांटा गा [९
00०ग्राएशाए 0_ 4 ]4869 ९णाफुग्या0, 4478४ (००07995$४707), ४४०३४
ज़ी वश वि९॥6. 57877 (0णि2५67255), 870 7806€ ॥075९
7 टहां4007 35 फरार एाटफ़बों 27), भव 00 _एणा2९९ पाक,
32407९१ हा€ ४पएाशा९र वृण्ना।ए 0 0००फाटाट 06बटा॥इशा -700
प्राटधाब। 376 राशा&ं
प्रभार ४०९ 35 पिच टं॥760 35 0]0795
मणा 06 रटाए धार 0 वर छाफ, ए०छॉह डगधा।26 एलटाट्शाड
बा 70प्राव 80ए॥॥ वा पीशा गाणदां$, ६09९42९, एटवाता 3॥॥0
एा०ऊऋुटाता।, [एशाजिह 06 एटी(पइ पद्ात९ णए _णांतराद्वात04743 ॥20
एए वाल व्मतएएण बटवुणार8 छठ00 ८०0॥7ए१६४07 (42४8) #्ण०
तणिष्ठाश्शा९४४ (६57870) '४९वाबपश४ शांधाइटए, जिड गा 22298-
ग्रटागुदां फबए, 7[60फ 8426 प्राद वण्बाए ण ०णराफुबषडशणा बात [ट,
09 5#7/79 4/7ब४ (कण ग्रॉटाइर गारताबवाणा) ॥70 णि8वए९८१८55५
ए९०फराहिलए रणा 0सश दाबिलागाशा फट गाए कारल फऊुद्ा) 0
बागाग़ा|९ #दापाबए5 78- छए. प्रावशागिताह 279 2[(9१7, का
|. जल्दाबाणा 3$ 00९ पर 7िपा ३५5
3.. ब2ग्ब परटरीब॒एब ॥0 गाधत्वाबाट णा प्रो जबच्॒ड 0 एल फटी णव्णह्टर्ण
तट एएण-वाए 0शए[5
2. धरना प्रद्ीवण्ब 00 गार्वाबार जा धार ए३५६४ (0 एणाएि एट ६7785
3. $क्रा॥/बा३ परटीबागब ॥0 प्राट्यांबरट गा तल शाकुर ण धार एणात
4. क्ुघबुएढ गालीवएब 0. गरल्ताबवाट रात (९एशफ७् जि जा ए€ ए४५
प्रगाशाताब छबड्रबशा 35$ 0९४27%८० ताल (8/0785
मार .48/#774749/4 आग दी(बाबा827.. 4]
जारी 38 70 एछ0$$फ्रार ज्राए0एा कशात्फ्राताए धांग्टागाशा
#िटीागाशा। 7$ 6 700 ९0७5९ 0 काश वश ॥5 ७५, त0फ,
०0०7ए6|८९।५ 88०९ एफ ाॉशचिएगाशा - एणी वांलाबी 00 €ज्ाशा॥।, भात॑
हक॥॥९० पिं] 00700] 0४९ ॥79५ 0 $शा
अचेतने तत्कृत-बन्धजेडपि च,
ममेद-मित्या-भिनि-वेशिक- ग्रहात् ।
प्रभंगुरे स्थावर-निश्चयेन च,
क्षतं जगत्-तत्त्व-मजि-ग्रहद- भवान् ॥ (7)
अन्वयार्थ- (अचेतने) अचेतन शरीर मे (च) और (तत्कृत-बन्धजे5पि)
उस अचेतन शरीर के द्वारा किये हुए कर्मबन्ध से उत्पन्न सुख दु.खादिक
तथा स्त्री पुत्रादि पर पदार्थों मे (ममेदम्) यह मेरा है मै इसका स्वामी हूँ
(इति) इस प्रकार के (अभिनिवेशिकग्रहात्) मिथ्या अभिप्राय को स्वीकार
करने से (च) तथा (प्रभडगुरे) नष्ट होने वाले शरीरादिक पर पदार्थों मे
(स्थावर निश्चयेन) स्थायित्व के निश्चय से (क्षत) नष्ट हुए (जगत)
जगत को (भवान्) आपने (तत्त्व) जीवादि पदार्थों का यथार्थ स्वरूप
(अजिग्रहत्) ग्रहण कराया है/समझाया है।
2802६४72९ /8007/4-28/70/28/2-2/2/ ८०,
॥78777209-7770/23-2077707 ४2577/9-6&7879/
छाबए/क्ा&ए72 उधवादवा-77576272 ८६,
ईडीवाबा? 88 एव 77487-829724-208057 (7)
बटह॑बघ2 + ॥॥ था प्रक्धागरि 0 20909 7099, (८/7768-
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क्षुदादि-दुःख प्रति-कारत: स्थितिर्,
न चेन्द्रि-यार्थ-प्रभवाल्प-सौख्यत: ।
ततो गुणो नास्ति च देह-देहिनो-
रितीद-मित्थं भगवान् व्यजि-ज्ञपत् ॥ (8)
अन्वयार्थ: (क्षुदादिदुःखप्रतिकारत-) क्षुधा तृषा आदि के दुःख का प्रतिकार
करने से अर्थात् भोजन पान ग्रहण करने से (च) और
(इन्द्रियार्थप्रभवाल्पसौख्यत:) स्पर्शनादि इन्द्रियों के विषयो से उत्पन्न अल्प
सुख से (देहदेहिनो:) शरीर और शरीरधारी आत्मा की (स्थिति:) सदा
5577 .48#7/क7478 748 5बणबा7ह77 43
स्थिति नहीं रहती (ततः) इसलिए उनसे उनका कुछ (गुण;) उपकार
(नास्ति) नहीं है। (इत्थम्) इस तरह (इृदम्) इस जगतू को (भगवान्) भगवान्
अभिनन्दन जिनेन्द्र ने (इति) यह परमार्थ तत्त्व (व्यजिज्ञपत्) बतलाया है।
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जनो5ति-लोलो5प्यनु-बन्ध-दोषतो,
भया-दकार्येष्यिह न प्रवर्तते।
इहा5प्य-मुत्राउप्यनु-बन्ध-दोष वित्,
कथं सुखे संसज-तीति चाउश्रवीत् ॥(9)
अन्वयार्थ, (जनः) मनुष्य (अतिलोल, अपि 'सन्') अत्यन्त आसक्त
होता हुआ भी (अनुबन्धदोषत:) आसक्ति रूप दोष से (भयात्) राजा
आदि के भय के कारण (इह) इस ससार मे (अकार्येषु) अकरणीय कार्यों
में (न प्रवर्तते) प्रवृत्त नही होता है फिर (इहापि अमुत्रापि) इस लोक और
पर लोक दोनो ही जगह (अनुबन्धदोषवित्) आसक्ति के दोष को जानने
वाला मनुष्य (सुखे) विषय सुख मे (कथ संसजति) कैसे आसक्त होता
है यह आश्चर्य की बात है (इति च अब्रवीतू) हे जिनेन्द्र। जगत् के जीवो
को आपने यह भी बतलाया है।
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स चाउनु-बन्धो5स्य जनस्य तापकृत्,
तृषो5भि-वृद्धिः, सुखतो न च स्थिति: ।
डति प्रभो लोक-हित॑ यतो मं,
ततो भवा-नेव गति. सता मत- ॥ (20)
अन्वयार्थ (स अनुबन्ध ) वह आसकतता (च) और आसकतता से
उत्पन्न होने वाली (तृषो5भिवृद्धि:) उत्तरोत्तर तृष्णा को वृद्धि दोनो ही
(अस्य जनस्य) इस विषयातिसक्त मनुष्य के लिये (तापकृत्) सताप
उत्पन्न करने वाली है (सुखत.) प्राप्त हुए अल्पमात्र विषय सुखसे (न च
स्थिति) जीव की सुख से स्थिति नही होती अर्थात् अल्प सुख से जीव
संतुष्ट नहीं होता (इति) इस तरह (प्रभो) हे स्वामिन् (यत:) चूंकि (मत)
आपका मत (लोकहितं) लोक कल्याणकारी है (तत ) इसलिए (भवानेव)
आप ही (सता) विवेकशाली सत्पुरूषो के (गति) शरण (मतः) माने
गये हैं।
ईद टक्चनबाप्-शगव4054 77254 (8/24/07/,
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5
5 5प्रात्रत। उ3 59फ्काधा
उपजाति छन््द:
अन्वर्थ-संज्ञ: सुमति-रमुनिस्त्य॑ं,
स्वयं मतं येन सुयुक्ति-नीतम्।
यतश्च शेषेषु मतेषु नास्ति,
सर्व-क्रिया-कारक तत्त्व-सिर्द्धि: ॥ (2॥)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (त्वम) आप (मुनिः) प्रत्यक्ष ज्ञानी हैं तथा
(सुमति, अन्वर्थसज्ञ:) सुमति इस सार्थक सज्ञा से युक्त हैं (येन) क्योंकि
आपने (सुयुक्तिनीतम्) उत्तम युक्तियों से युक्त (तत्त्व) तत्त्त (स्वय मत)
स्वय स्वीकृत किया है (च) और (शेषेषु मतेषु) आपके मत से शेष अन्य
मतो (सर्वक्रियाकारकतत्त्वसिद्धि:) सम्पूर्ण क्रियाओं तथा कर्त्ता कर्म करण
आदि कारको की तत्त्वसिद्धि (नास्ति) नहीं है।
बाएपबा[74-5वय्ा247 उााादा/ना7ए75/07477,
डाखपबाए7 777 एटा॥ उएााई7-|/बिए?
जबा८5स्2८8 542572६४7 2782/25877 72577,
&शरएब #बईाए2 (862- 57077 (2)
दपए्बटस्4-ड4म77747 - 2८४६5 फाड़ शारबातद्टछ!] ॥00७0 (789८),
48. उए27ब्रप7800 $/00फक
उपाफबाओ - डप77290, 506 ब्रा ]0ट्ााटवों गाते, कापप्ाए - टोंट्था।प
॥॥6 एश५5९३४:एश३एणा, 009९१8९ एश5णगाशिटव, #/8777- 7॥00, 5:77
- जी पृफ्ए 0एक, ज्रातरि0ए धरा 07862 कराए, आाब/दाा - 260ए7एटव
चाट ए<2८८ए(, पलाब - 9९८5९, उपग्परईस्[-पद्वाा - 08520 0ा 50प्रात॑
]020 भाव 7९485ण708, उ/४/- शोशारा, ८६ - बा, 542522570 - ॥
बाए 006 ७ [चञ९, 278/250० - छ९ए९ए ज 00804, 7887 -
060९5 ॥00 लाए, 58778 - था, (प्र - एटा, बटाए९5, दबाव:व -
+8८6075 ॥7८९ #फ्रटट, छं€टा, ८052८, ९६९ , /#6/28-526५/7/ै -
€डंवजाशायगल्ाआ ्ी प्रप्रट क्रक्रुठशाकता ए॑ (86745, 7457 - 0९5 70
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()९ ॥क्ष्गाह 8 8009, 50006, जएा5८ शा0 उद्बा04ा गाव 75 28॥९0
उप्ााढ7 07,0व4, [॥070, थ॥। 26879 7९ 7002९8, ९ ७5८5६
270 6 ए05 ॥009९902९४४॥८, 7.00 दह॥फ७ि/9 फटद्वाए)) 0९
चार्शाग्रा्रप गधा एक ऊ5पफ्राधा ०0८ 50, 7228052 ॥7.0प वी
ण पश्ञए 0जा, शा70फ 80५ 07996 ॥0]0, 035८६ 07 ४0770 02९
476 7९8807772, 36077९08 ४7९ 97९९९७( 0० /8/6745, ८१
धा९€ ॥ए€ ॥8ए४:४९ ए ४९ 5एऑंडघराएट$ ० एझार्ट९एछा णीलश फऐात्ा
वृफ्माह6, €श॑ंब०80८$ ए$ प्रपर ताइएएठ0आत0ा 0 था पार सए्टा05
(4टएश7९$) #6 #272&25 ((800075 [॥7९ $पफ९०, ठ्थ्टा ८875९
शं2 ) प्राश्णश्थ्व फैशटा।
अनेक-मेक॑च तदेव तत्त्वं,
भेदान्वय-ज्ञान-मिद हि सत्यम्।
मृषोप-चारोउन्य-तरस्यथ लोपे
तच्छेष-लोपो5पि ततो5नु-पाख्यम् ॥ (22)
अन्वयार्थ - (तदेव तत्त्व) वही युक्ति सहित तत्त्व (अनेक च एक) अनेक
तथा एक रूप है। (हि) निश्चय से (इद भेदान्वयज्ञान) यह भेदज्ञान और
अन्वयज्ञान [अनेक को विषय करने वाला यह भेदज्ञान और एक को विषय
करने वाला अन्वयज्ञान| (सत्यम्) यथार्थ है। इनमे से किसी एक को
(उपचार:) उपचार रूप कल्पित मानना (मृषा) मिथ्या है क्योंकि
(अन्यतरस्य) दो मे से किसी एक का (लोपे) अभाव होने पर
(तच्छेषलोपो5पि) उससे शेष अन्य धर्म का भी अभाव हो जाता है और
47 डप्रकाह7 8 ीक्राब्खढह7.. 49 '
(ततः) दोनों का अभाव हो जाने से तत्त्व ( अनुपाख्यम्) नि: स्वभाव होने
से अवाच्य हो जाता है।
47243-7726977 ८४ (4278 (8/072777,
शटवंबगारब-7478-777477 क्7 40777
प7750.792-८277-बपब्-नबिाब52-०7८,
(&2८72504-709097-(६/077-28/777277 (22)
|
बा्बए2 ८8 277- ग्राएँत 85 एशी 88 शाह्वॉट 40९, (20272 - #१८
इाग€, धी्वा ज३5 ९डकजाडाीटत, (#77- /प्वटी (478 (फप्रा्ट &70
70॥-[एशा।ह डफ्रडंब025), 8/24ंक्राशुनब- गाबरा2 - 2278 77779, ॥5
॥4॥0090९092९ जला धारलटिशा।बं2ट$ 06 ए,ात075 ए/फुटा725 गातं॑
एन 77879 ॥ ता 000ए72९672८ जाला शशह्रोट5 07 8 एएकुथाफ़,
ग८4॥77- 5, उद्वठद्वए7 - ॥ 7९ 07 0 प्र८, 77775 - गिं5८ 0' जराणाह,
फ्छटबाब- णि39, 00 ए2४ 07९ छ90क॒ृश 35 एप्राबह्ञा।द्वाए, ग्यदव -
द्वाबडब - शााश ए 6 ए०, /072- 800९८ए7ए78 72८ 0णगरा550॥ 0,
(82002578 - पी कशा।बागणहए जाल एफक्शत, 7072 - ताइब्फुए८था$,
8/27- 8080, (8८877 -- 0 ९॥१ (00 8000एत॥ ० 805200€ ०0909),
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सतः कथंचित् तदसत्व-शक्तिः
खे नास्ति पुष्यं तरुषु-प्रसिद्धम ।
सर्व-स्वभाव-च्युत-मप्रमाणं,
स्व-वागू-विरुद्ध तब दृष्टि-तोउन्यत् ॥ (23)
अन्वयार्थ: (सत-) स्वद्रव्यक्षेत्र काल भाव की अपेक्षा सद्रूप जीवादि
पदार्थ के (कथज्चित) किसी अपेक्षा पर द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा
(असत्वशक्ति:) असद्रूपता है जैसे कि (पुष्प) फूल (तरुषु) वृक्षो पर
(प्रसिद्धम्) प्रसिद्ध है (खे) आकाश मे (नास्ति) नहीं है। यदि तत्त्व को
(सर्वस्वभावच्युतं) सत्व और असत्व-दोनो प्रकार के स्वभाव से च्युत माना
जायेगा तो वह (अप्रमाण) प्रमाण रहित हो जावेगा। हे भगवन्! (तव
दृष्टित: अन्यत्) आपके दर्शन के सिवाय अन्य सब दर्शन (स्ववाग्विरुद्ध)
स्ववाणी से विरुद्ध हैं। अर्थात् स्ववचन-बाधित हैं।
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न सर्वथा नित्य-मुदेत्य-पैति
न च क्रिया-कारक-मत्र युक्तम् ।
नैवा-सतो जन्म सतो न नाशो,
दीपस्तम: पुदगल-भावतो5स्ति ॥ (24)
अन्वयार्थ. (सर्वथा नित्य) सब प्रकार से नित्य वस्तु (न उदेति) न उत्पन्न
होती है (न अपैति) न नष्ट ही होती है (च न) और न (अत्र) इस
मान्यता मे (क्रियाकारक युक्तम्) क्रिया कारक भाव ही सगत होता है।
क्योंकि (असत ) असत्-अविद्यमान पदार्थ का (नैव जन्म) जन्म नहीं
होता और (सतो न नाश;) विद्यमान पदार्थ का नाश नही होता [यदि कहा
जाये कि जलता हुआ दीपक बुझा देने पर उसमे क्या शेष रह जाता है यहाँ
तो सत् का नाश मानना पडेगा तो उसका उत्तर यह है कि] (दीप ) दीपक
(तम, पुदूगलभावत, अस्ति) अन्धकार रूप पुदूगल द्रव्य के रूप मे
विद्यमान रहता है।
ग्रह उद्घाएब(व8 770/4-777ए22072-2470,
गब दब (74-/2/2-7740व 7:६7
खक्ाए4-54/0 /277778 5260 728 7745770,
दाए48/877787 2ए2/89/8-20/72073८050. (24)
गब + पटातएा', उद्घाश्ब/ीब + ९टा, गातबगए - छशाग्राद्याटा 0
हशटा445078 006९, प्रध/८7 - 35 2९8९6, 74 3/2270 - ॥07
वटडप0ए९6, #4 ८8 - शा 60९5 ॥00, &/7ए78-#ब7842797 - ४ए०एप्रात्र
इप/९९ 07 60९0, 264 - गटर 82८९काटा2€ 0 एड 9ए9ण72८85,
न्पडबार - प्राएजरट, खब्गावएट - गावरा, ढ5बांबग - प्राबश्ाए 0
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था० 2076९ छ७क़ांक्रा॥ाएफ 0 (6 7247५
'विधि-निषेधए्च कथजिब-दिष्टौ,
विवक्षया मुख्य-गुण-व्यवस्था ।
इति प्रणीतिः सुमतेस्तवेयं,
मति-प्रवेकः स्तुवतोउस्तु नाथ ॥ (25)
54. 5खबएब77/77 56872
अन्ययार्थ: (विधि:) अस्तित्व (च) और (निषेध:) नास्तित्व दोनों ही
(कथज्चित्) किसी अपेक्षा से (इष्टौ) इष्ट हैं। (विवक्षया) वक्ता की
इच्छा में उनमें (मुख्यगुणव्यवस्था) मुख्य और गौण की व्यवस्था होती है।
(इृति) इस तरह (इयं) यह (प्रणीति:) तत्त्व निरूपण की पद्धति (सुमतेः
तब) आप सुमतिनाथ स्वामी की है। (नाथ) हे स्वामिन्! (त्वां स्तुबत: मे)
आपकी स्तुति करते हुए मुझे (मतिप्रवेक:) मति का उत्कर्ष प्राप्त होवे।
प्रध।ए-7572९6/95708 ६2/0487707-275/7/8 ए,
शा74/5/9 ॥ए:772-20774- परखह725/74
7 27707 5ए7774/25/672ए477,
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770%कंए 07 जा 8 टटाओ) 2८एा€डा, 725स्/80 - ४877087,
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ए्श्चा'85/74 - 0९८5४ 6९ ४८ 0ी गाधया। 0 फुपाटफुणों 200
8९८06 679 0०॥ प्र9004790, 77 - 8, 74778 - ॥९४006 ०
ब0भरएडशआ३ फिट गबाणएार णी (745, 30772/27- 0 .06 5फाना।
दा, (278 - ०79 ए व€९, 7'क्क7 -]॥7 5 ज़्नए, 7220-27472/47
- 49 5पणा शराइत07 9९ ॥छथाॉटा९6 जा ग्राट, उ/77/8/8/ - जशातराट
छणडाफ्ए9? 76९, 8४ए - गए 9९, 78/72 - 0 4,0700
800 ९ छएुःटइ5९गट९ बात ब9३टा22 एी टशाबाएओ ९०0/ए802ट079
एा०ए्थशप९5 ॥ 8 5फेडश॑ंआ0९, जीशा पर९्फ़९त गा शा 7259९टाफएट
ए0०मआ९्टरा$ ए९टणा6 शशग्यारिल्या। 738 गिर लाणए८ ०6 पी€ बए70,
जारी परबतट४ णार बकए2था एगटाफएबा 5 ॥07क्षा 370 (6
0०गाशथ ३८९०० ता प्राराफएणाञांधा। 77.5 फशा04 एा &808/9 शा?
घाट 7९ ॥/ए72 ०0 8 500४-06 ॥ 89९) 6 ए९५, 0 करवा पा॥व।।]
ात, 75 णाए पफ्राट 07,00, | छा89, 78ए7 6€ $8॥€ एा5007॥
ए९ भ्रज्रथा८९१९० ॥0 जाल ज़रा ल्पॉ6्ट्टाराणह 776०2
प्प्रा$ ७ फिपिला 0४३7776९व 35 0०९०ए
जराशा बुणएटडघणा 0 एशपाब्रारईं बा ॥स्0-7-कुशफाधाशा, शाहं८
बात परापाणट, दाडआल ब्ाव॑ 20छाषा0ठा बात॑ आ्राांन्रव तल 2णागिटॉंगड
5 डफशशसशायब उीडश्शथर0 55
छाकुशछ6३ ॥5 8 5ए9४80८ ६&08८5, 0८ 5 006 ॥5 <ब्ली९तव प्रंघ87
(रगिषाशाणा) 3080 रद 52००4, ऊएएडस्ट जी फदा 777522074 (4८772)
[ज््िल रबर क्राठ८0, वएटइतणा 05शकक्षारटतां 880 ॥00-%शब्ाला
7307९ 07 (॥6 5च्च०0४8700९९ ज85 78526 ४0 $0 शव 2०एाहइटका३
एशआमधारा बातव॑ 778#2478 707-59९09309ट7 ॥4072 ता ॥ 8750८
6 8एएडंगाटट गिणा 8 शांब्या एण एण शल्ज़ ॥5 एशाधब्वाशां 876
विणा। द्ाणीश 358 प्रणाकृुशणब्राधा 6 शंबा$ ० ऊशाशक्षाशाटट ण
॥रण-|९णक्षारावट९ 6९92०65 3 06 20206 ण 6 $८्बरॉटट, ॥006 ॥
38 5 एणा।( एज श€्ए जारी गराभोएट३ जाट 00 0 ॥८ (ज़0 एध्थगरा?5,
एप णा फम्नगटाफ॥ ६७06 फ€ 06 5९००5 0 ए्रग्राफुणबा
238 7,006 5फ्राद्वा िध्वात 45 ९०040979८४ ज्ञात ९ 72९8४ 0 जछा5607
4374 $0 ए6€ ग्रढा060]087 ० ॥5 क्षाक्षएझ्राए 06 गक्लाएर 0० 06
5809४370९€ 9४७5 6 ०७८५७ “(00],004, 729, ११8५ ! एड 7>९डंएश८2० शाप
द2ट $थ्या९ एा56007 85 3 72924 07 7५ ८००३५ [0 706८” ए४8$ 00८
जाई ९९०४८४४८० एप ९ 8८0५३, 5प्रद्रात्र 50056 जा 5
छ़ाकज्टा
6
5छ7 ?837487972870728 7748 $[2एथ्आभवाा
उपजाति छन्द-
पद्मप्रभ पद्म-पलाश-लेश्य*
पद्मा-लया-लिद्वित चारु-मूर्ति: ।
बभौ भवान् भव्य-पयो-रुहाणां,
पद्मा-कराणा-मिव यद्म-बन्धु- ॥ (26)
अन्बयार्थ, (पद्मयपलाशलेश्य ) जिनके शरीर का वर्ण कमल पत्र के समान
लाल रग का था तथा (पद्मालयालिड्वितचासुमूर्ति.) जिनकी आत्मस्वरूप
निर्मलमूर्ति अनन्तज्ञानादिरूप अन्तरग लक्ष्मी से एब जिनकी समस्त उत्तम
लक्षणो से सहित शरीर रूप मूर्ति नि.स्वेदत्व आदि-पसीना के अभाव आदि
रूप बाह्य लक्ष्मी से आलिंगित थी ऐसे (पद्मप्रभ ) पद्मप्रभ जिनेन्द्र थे। हे
जिनेन्द्र (भवान) आप (भव्यपयोरुहाणा) भव्य जीव रूप कमलो के
हितोपदेश रूप विकास के लिये उस तरह (बभौ) सुशोभित हुए थे जिस
तरह कि (पद्माकराणामिवपद्मबन्धु ) कमल समूह के विकास के लिये सूर्य
सुशोभित होता है।
429447/78/2742/797 7847072-/02/85749-7८25/7079/7,
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बभार पद्मां च सरस्वती च,
भवान् पुरस्तात् प्रति-पुक्ति-लक्ष्म्या: ।
सरस्वती-मेव समग्र-शोभां,
सर्वज्ञ-लक्ष्मीं ज्वलितां विमुक्त- ॥ (27)
अन्वयार्थ हे पद्मप्रभजिनेद्ध! ( भवान्) आपने (प्रतिमुक्तिलक्ष्म्या, पुरस्तातृ)
मोक्ष रूपी लक्ष्मी के पूर्व अर्थात् अरिहन्त अवस्था में (पद्माम) अनन्तज्ञानादि
रूप लक्ष्मी (च) और (सरस्वती) दिव्यवाणी-दिव्यध्वनि को (बभार)
धारण किया था अथवा (समग्रशोभां) समस्त पदार्थों के प्रतिपादन रूप
विभूति और समवशरणादि रूप समस्त शोभा से युक्त (सरस्वतीमेब)
दिव्यवाणी को ही धारण किया था पीछे (विमुक्त: सन्) समस्त कर्ममल
58. 5ाबुएक्ा72707 5/007
से रहित होकर (ज्वलिता) देदीप्यमान-सदा उपयोग रूप (सर्वज्ञ लक्ष्मी)
सर्वज्ञता रूप लक्ष्मी को धारण किया था।
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शरीर-रश्मि-प्रसरः प्रभोस्ते,
बालाक-रश्मिच्छवि-रालि-लेप ।
नरा-मरा-कीर्ण-सभां प्रभावच्,
छैलस्थ पद्माभ मणे: स्व-सानुम् ॥ (28)
अन्वयार्थ (बालार्करश्मिच्छवि.) प्रातःकालीन सूर्य की किरणो के समान
कान्ति वाले (ते: प्रभो.) आप स्वामी के (शरीररश्मिप्रसर:) शरीर सम्बन्धी
कप ए्रलंग्राबए7/22/8 उतर उद्वाबपछ277.. 59
किरणों के समूह ने (नरामराकीर्णसभां) मनुष्य और देवों से व्याप्त
समवशरण सभा को (पद्माभमणे: शैलस्य प्रभावत् स्वसानुमिव आलिलेप)
उस तरह आलिप्त कर रकखा था जिस तरह कि पद्मरागमणि के पर्वत की
प्रभा अपने पार्श्यभाग को आलिप्त कर रखती है।
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सहस्र-पत्राम्बुज-गर्भ-चारै: ।
पादाम्बुजै: पातित-मार-दर्पों,
भूमौ प्रजानां जिजहर्थ भूत्ये ॥ (29)
अन्ययार्थ: हे जिनेन्द्र! (पातितमारदर्प:) कामदेव के गर्व को नष्ट करने
वाले (त्वम्ू) आपने (सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारै.) सहस्रदल कमलो के मध्य
60. $क्रक्ा7827#0 57089
में चलने बाले अपने (पादाम्बुजै)) चरण कमलो के द्वारा (नभस्तलं)
आकाश तल को (पल्लवयन्निब) पल्लवो से युक्त जैसा करते हुए ( भूमौ)
पृथ्वी पर स्थित (प्रजानां विभूत्यै) प्रजाजनों की विभूति के लिये
(विजहर्थ) विहार किया था।
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गुणाम्बुधे विंप्रुष-मप्य-जमस्र,
नाखण्डलः स्तोतु-मलं तयर्थे:।
प्रागेव मादक किमु-ताति भक्तिर्,
मां बाल-माला-पय-तीद-मित्थम् ॥ (30)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (ऋषे.) समस्त ऋद्धियो के निधान स्वरूप (तव)
आपके (गुणाम्बुधे ) गुण रूप सागर की (विध्रुषमपि) एक बूंद की भी
उम्रा सवंए42कानशाब उ72 ठीद्वारवाा॥77:..6
(अजस्नम्) निरन्तर (स्तोतु) स्तुति करने के लिये जब (आखण्डल:) इन्द्र
(प्रागेब) पहले ही (अल न) समर्थ नहीं हो सका है तब (मादुक्) मेरे
जैसा असमर्थ मनुष्य (किमुत) कैसे समर्थ हो सकता है? अर्थात् नही हो
सकता। (अतिभक्ति:) यह तीज भक्ति ही (मा बाल॑) मुझ अज्ञानी से
(इत्थ) इस तरह (इृद) इस स्तवन को (आलापयति) कहला रही है।
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उपजाति छनन््द
स्वास्थ्यं यदात्यन्तिक-मेष पुसा,
स्वार्थों न भोग परि-भंगु-रात्मा ।
तृषो5नु-षड़्ानू न चर ताप-शान्ति-,
रितीद-माख्यद् भगवान् सुपाश्व ॥ (3)
अन्वयार्थ - (यत् आत्यन्तिक स्वास्थ्यम) जो अविनाशी स्वरूपलीनता है
(एक) यही (पुसा) जीवात्माओ का (स्वार्थ ) निजी प्रयोजन है
(परिभडगुरात्मा) क्षणभगुर ( भोग:) भाग (स्वार्थ: न) निजी प्रयोजन नही
है। (तृष ) उत्तरोत्तर भोगाकाडक्षा की (अनुषड्भरात्) वृद्धि से (न च
तापशान्ति ) ताप की शान्ति नहीं होती है (इति इदम्) इस प्रकार यह
विवेक (भगवान् सुपार्श्व ) विशिष्टज्ञानी सुपा्श्वनाथ ने कहा है।
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ए97280९0 ए0७पच्र 766, पद 708 ९7८6, 7,000 $0एश37॥९५8 रा]
गावशथा।ा&
अजड्डमं जड्डम-नेय यन्त्रं,
यथा तथा जीव-धृतं शरीरम्।
बीभत्सु पूति क्षयि तापकं॑ च,
स्नेहो वृथाउश्रेति हितं त्व-माख्य: ॥ (32)
अन्वयार्थ; (यथा) जिस प्रकार (जद्भमनेययन्त्र) गतिशील मनुष्य के द्वास
चलाया जाने वाला यन्त्र स्वय (अजड्जम्) गति रहित होता है (तथा) उसी
तरह (जीवधृत) जीव के द्वारा धारण किया हुआ (शरीरं) शरीर स्वय
(अजड्भम) गति से रहित है - जड़ है। साथ ही यह शरीर (बीभत्सु)
घृणित, (पूति) दुर्गन््ध से युक्त, (क्षय) विनश्वर (च) और (तापकं)
सताप उत्पन्न करने वाला है इसलिए (अत्र) इस शरीर में (स्नेह:) अनुराग
करना (बृथा) व्यर्थ है (इति) यह (हित) हितकारक वचन (त्वम) हे
6564 #श्ष४777277 6/007
सुपाश्व जिन! आपने (आख्य:) कहा है।
47ब्य8शाबा7 747827779-7272 ॥्ाए477,
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बाग - एतिएएा शाप 9०0, /278&9779 - 0ए92९:४८व 0प
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जा 08, 8003 - 35, ८808 - पर [6 54772 छबए क्0 7८ 8ए४९९ 0
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-+900फ79, 80767 - 0289८2992, /770- प्र 0 60 धरे, &8/407
- 79धशाशी470९, (872/६977 - ९४७६९ 0 दवा प्राइटाए९2$, 28 - 370,
72727 - 00 #९ दॉबटा९6, श7678 - 9ण्रा€5५, 908 - शव) 5
70069, 77 - 5७०१, #7#वि7 - ?0१6डिटावो डील, एड - (॥66
0, [,006 58गा 57४08 'बिढ्वा) जाट, 27997 - ७३५
7740९
05 8 ग्राबटीगार 6 व प्राइएए९0, 059274(९0 9५४ 8 ॥राह३ एशप्र्ट,
97 था 35$ ज्राएि0ए धार प000, 6 5६6 35 06 फ़बप शाती
॥९ 9009 ०९८४9९9 ४9५ 6 ४00 वृफ्र€ 7009 पा0एड्टी) 7946 0
ाहा06 फ्रा207905$, 0५ ॥52!4 ॥8 9707 070 4८]९$४$ 77 840॥0070,
[5 7049 35 6€5छाटग्ाल, णि छी 607 आाशी, एऊल्याशाक्रांट दावे
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ड0ल्९श१व9
अलंघ्य-शक्ति-भंवि-तव्य-तेयं,
हेतु-द्या-विष्कृत-कार्य-लिड्रग ।
अनीश्वरो जन्तु-रहं-क्रियार्त:,
सहेत्य कार्येष्चिति साध्ववादी: ॥ (33)
अन्वयार्थ: (हेतुद्॒याविष्कृतकार्यलिद्ठा) शुभ अशुभ कर्म अथवा बाद्दा और
आध्यन्तर दोनों कारणों से उत्पन्न होने वाला कार्य ही जिसका लिड्ड-ज्ञापक
रे
577 5प्एब/5ार गजब उीक्चएब्ए2फक 65
है ऐसी (इयं) यह (भवितव्यता) भवित॒व्यवा-होनहार (अलद्धघ्यशक्ति.)
किसी भी तरह टाली नही जा सकती [दथा भवितव्यता की अपेक्षा नही
रखने वाला], (अहंक्रियार्त.) अहकार से पीडित हुआ (जन्तु:) संसारी
प्राणी (सहत्य) अनेक सहकारी कारणों से मिलकर भी (कार्येषु)
सुख-दुःखादि (कार्येषु) कार्यों में (अनीश्वर.) असमर्थ है। हे सुपार्श्व
जिनेन्द्र! आपने (इति) यह (साधु) ठीक ही €अवादी:) कहा है।
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बिभेति मृत्योर्न ततो5स्ति मोक्षो,
नित्यं शिवं वाञ्छति नाउस्थ लाभ: ।
66
787477877 $/007
तथापि बालो भय-काम-वश्यो,
बुथा स्वयं तप्यत इत्यवादी: ॥ (34)
अन्वयार्थ. यह जीव (मृत्यो-) मरण से (बिभेति) डरता है परन्तु (तत.)
उससे (मोक्ष:) छुटकारा (न अस्ति) नहीं है (नित्य) सदा (शिव)
कल्याण अथवा निर्वाण की (वाञ्छुति) इच्छा करता है परन्तु (अस्य
लाभ: न) इसकी प्राप्ति नही होती (तथापि) फिर भी (भयकामवश्य:)
भय और काम के वशीभूत हुआ (बाल.) अज्ञानी प्राणी (स्थय) स्वय ही
(वुथा) निष्म्रयोजन (तप्यते) दुःखी होता है, हे भगवन् (इति) यह आपने
(अवादी-) कहा है।
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गंाशावाब
सर्वस्य तत्त्यस्थ भवान् प्रमाता,
मातेव बालस्थ हिताउनु-शास्ता ।
$इकत डपछकाउएएड जब उीशएकाबए.... 67
गुणाव-लोकस्थ जनस्य नेता,
मयापि भक्त्या परि-णूय-सेडछा ॥ (35)
अन्वयार्थ: (भवान्) आप (सर्वस्य तत्त्वस्य) समस्त जीवादि पदार्थों के
(प्रमाता) संशयादि रहित ज्ञाता हैं, (बालस्थ) सनन््तान को (मातेव) माता
के समान (बालस्य) अज्ञानी जनों को (हितानुशास्ता) हित का उपदेश देने
वाले है और (गुणावलोकस्य जनस्य) सम्यग्दर्शनादि गुणो का अन्वेषण
करने वाले भव्यसमूह के (नेता) सन्मार्गदर्शक है अत, (अच्च) आज
(मयापि) मुझ समन्तभद्र के द्वारा भी हे सुपाश्वजिनेन्द्र! (त्वमू) आप
(भक्त्या) भक्तिपूर्वक (परिणूयसे) मन, वचन, काय से स्तुत हो रहे है -
मै मन से, वचन से, कर्म से आपकी स्तुति कर रहा हूँ।
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8
5चा (ाग्याताबणशाबाओ93 उ73 9फ4॥7
उपजाति छन्दः
अन्द्रप्रभं चन्द्र-मरीचि-गौरं,
चन्द्र द्वितीयं जग-तीव कान्तम्।
बन्दे5भिवन्द्य॑ महता-मृषीन्द्र,
जिन॑ जित-स्वान्तद-कषाय-बन्धम् ॥ (36)
अन्वयार्थ (अह) मै (चन्द्रमरीचिगौरं) चन्द्रमा की किरणो के समान गौर
वर्ण, (जगति) ससार मे (द्वितीय) दूसरे (चन्द्र इब) चन्द्रमा के समान
(कान्त) सुन्दर (महतां) इन्द्र आदि बडे-बडे जनों के (अभिवन्द्य)
वन्दनीय, (ऋषीन्द्र) गणधारादि ऋषियों के स्वामी (जिन) कर्मरूप
शत्रुओ को जीतने वाले (जितस्वान्तकषायबन्धम्) अपने बिकारी भाव
स्वरूप कधषाय के बन्धन को जीतने वाले (चदन्प्रभं) चन्द्रमा के समान
कान्ति के धारक चन्द्रप्रभ नामक अष्टम तीर्थंकर को (बन्दे) वन्दना करता
हूँ
ट्ावीाबफाबशादायए 2टब72/74-7747720 2774877,
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अपराध 2/4-5५877/8-257978-28777877 (36)
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यस्याडू-लक्ष्मी-परि-वेष-भिन्नं
तमस्तमोडरेरिव रश्मि-भिन्नम् ।
ननाश बाहां बहुमानसं च,
ध्यान-प्रदीपाति-शयेन भिन्नम् ॥ (37)
अन्वयार्थ: (यस्य) जिनके (अद्भलक्ष्मीपरिवेषभिन््नम) शरीर सम्बन्धी
दिव्य प्रभामण्डल से विदारित (बहु) बहुत सारा (बाह्य तमः) बाह्य
अन्धकार (च) और (ध्यानप्रदीपातिशयेन) शुक्लध्यान रूपी श्रेष्ठ दीपक
के अतिशय से (भिन्न) विद्वरित (बहु) बहुत सारा (मानस तम:)
मानसिक अक्ञानान्धकार (तमोरे.) सूर्य की (रश्मिभिन््न) किरणो से
विदारित (तम इव) अन्धकार के समान (ननाश) नष्ट हो गया था।
उबडाबग&4-7457777-94/7-72574-2077777277,
हवापा4्रडॉबाए0727 78 7बडग्रयाा 2#777कद77
खद्ाह5क्2 24/क्रय 08/ए/बाबइडाए 24,
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उप टफ्रबममक्रारशन जद उीद्ारबाबपा 2]
अब) - छ05९, ढा2&ि8- 0000 ए्बांड, /8/57777- [ए7075 ह0ए,
एक7772578 - शालाटगडह ण ध्ाणावाड, #/#77877 - शााधहरत
॥0799, (7747 - 037:655, /2770728 - 07 (९ 5चय, 778 - [६€,
#85/#777-॥8%95, 2/777477- टायटव ॥707, 27297295/8 - ताइफुलइट८त
णा कषड0092ट4, 2279877- ९डपट9॥, 82/प - छ्ाटवां, ग्रावाउन्वड॥7 -
चटाई तंद्वाधपट5$ णी इहाए70०2, ८ - बाएं, दएक्ाब - 5॥7//६
4787, एफपार &॥0 प्राधाइ९ गर्वा॥00, 77247.8 - 582८६ ४7,
45748 /श74& - 6 0800 82777977 - श्व९6 7075
2.5 6 799५5 ० 0९ पर $छ7 त5एटे 2 (470९55 ए पर पाहशाँ।,
$0 (0८8४ पीर [ए्रगराहञ605 ट2270ण टाशब्राबंए तिणा फ्रट 7904४ एण
शत एशाकब्राताग्फान्णाब गाराताब - 7 त87टॉ5 चार (द्घाताट55 ए
॥शाण4ा०९ 4 एछा4ए पीबा तिट तापार ॥शा। ट्रभाभाएए 707 ता
गप्रध्यता॥'$ 97009 ॥98४ 8595९] पाए 7९0भ्ाा2९, टी2४75९ पा 5007
बाद 560प्रां
स्व-पक्ष-सौस्थित्य-मदा5वलिप्ता,
वबाक-सिंह-नादै-विमदा बभूवु:।
प्रवादिनो यस्य मदार्द्र-गण्डा,
गजा यथा केसरिणो निनादै: ॥ (38)
अन्वयार्थ- (यथा) जिस प्रकार (केसरिण-) सिह की (निनादे ) गर्जनाओ
से (मरदार्द्रगण्डा ) मद से गीले गण्डस्थलो के धारक (गजा:) हाथी
(विमदा.) मद से रहित हो जाते हैं (तथा) उसी प्रकार (यस्य) जिनके
(वाक-सिहनादै ) वचन रूप सिहनादों के द्वार (स्वपक्ष सौस्थित्यमदावलिप्ता:)
अपने मत-पक्ष की सुस्थित के घमण्ड से गर्बीले (प्रवादिन:) प्रवादी जन
(बिमदा.) गर्व रहित (बभूवुः) हो जाते थे।
डा89-24/572-5405/77/7&-774432॥477264,
५8/#-5777-पपक्गध॥॥7- श7744ं4 088#प्व/प7
ए्रवप्बता70 एड 7780/28772-847275,
इक्षव 78048 ६ट5ब77770 77724 477 (38)
$74-74#576 - पीशा 0च्चता हांदेट, उएड#7078 + ८0)रीव८१्र८९ ०0
प्राणासाराए, मा2व - थि३९ ए66, 8/8//फ/8 - ॥73979९६ ए७, ४४/-
72. ह$एक॥77087 5700
877742-727977 - 006 ए०१8, ॥४९ 7047 0एा 38 ॥0, सग्ररव॑ंब
कप, 09९९१ कर छ46 ए॑, 82/7एशप: - छ८ा€ 7842८,
बब्बर -+ ए7700880705६8 0 0फएएशाह शाट्ज़8 07 (८
डॉगा8ए807८5 (052 0 9राए्ु 02९-8066 शाट्स$), उम5/8 -
052८, 77844747/4 - प्राएड्राट८व 99 ॥0ज्ञागह एएीए, &2768 -
७7 06 टाए८३ ०, 4299 - ए्रभव९ श९फरा875, हक - 8४ ण प६,
#25877770 -. #0, झ7744977 - 7047
पा पाई शांत, प्रशायटाशा|।ए ण धार गह्प्रााराक णी धात
(शरश्यावब)ान्ं4 जाशाता३ 35 82४270९6
80070 था6 0९८एं ब्वाइपशाह 0 5कत एब्रातागफ/ओ०॥8
गर््नल्गत/3, 07026 6 परा0४ 0०८2) 80ए८7४७7725 पा 8८००८
#ंव०पएह्ठा। #९5९ 30एट८78४47९05 एढाट टणारारट८टत 0 6
प्राशाटाण्रा।ए एण पाला 0० 72880०॥7725 0९9 जटरा९ गएाएफ।रत
3॥6 670९७ ७५ 5089 उ7९067३ 70९0 35 ४९ फाशीए इ0थ ०0 28
वणा हरण्पगाएर९8 पर लल्आबगड प्राएज्राट्यॉ2व एप 7070 40 शाप?
607 ऐीशा टाए९5 4 एछ३७ (0 ॥6 $॥72 5धया (वाभावागफ्राथ०4
गा्लशाकाब [0 0९8॥5९ 7 गाए शत 500
य. सर्वलोके परमेष्ठि-ताया:,
पदं बभूवाद-भुत-कर्म-तेजा' ।
अनन्त-धामाक्षर-विश्व-चक्षु. ,
समनन््त-दुःख-क्षय-शासनश्च ॥ (39)
अन्वयार्थ: (य-) जो (सर्वलोके) समस्त ससार मे (परमेष्ठिताया*)
परमाप्तपना के (पद) स्थान (बभूव) थे (अद्भुतकर्मतेजा-) तीव्रतपश्चरण
रूप कार्य से जिनका तेज अद्भुत अचिन्त्य था, (अनन्तधामाक्षरविश्वचश्षु:)
अनन्त केवलज्ञान ही जिनका लोकालोक को प्रकाशित करने वाला
अविनाशी चक्षु था (च) ओर (समन्तदु-खक्षयशासनश्च) जिनका शासन
चतुर्गति के दु-खो का क्षय करने वाला था।
जब डब्ा8/062 70772570-/274.7,
एएबवकाए 290/पए7744-68/7/8-687777-/278/7
बागाबएब-2774/5/478- ए5774-2/६507,
इक्फ्ाबधब-द०4474-5/972-595877259228. (39)
कमा टमबागंब?ाबशीब अजब डीब एकशक्पाा.. 73
अब्मा + जी0०, 38772/08९ - 9 थी ९८ प।रर 'ज़छण05, 7277772570-
शव एब्रा - इ९फाटइटा।26 (6 एथशपर एणाज ण पा 500, फछब4॥77 -
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स चन्द्रमा भव्य-कुमुद-वतीनां,
विपन्न-दोषाभ्र-कलडःक-लेप: ।
व्या-कोश-वाड--न्याय-मयूख-माल: ,
पूयात् पवित्रो भगवान् मनो में ॥ (40)
अन्वयार्थ, जो (भव्यकुमुद्रतीना चन्द्रमा:) भव्यजीव रूप कुमुदिनियों को
विकसित करने के लिये चन्द्रमा है, (विपन्नदोषाभ्रकलद्ड-लेप:) जिनका
रागादि दोष रूप मेघकलडक का आवरण नष्ट हो गया है,
(व्याकोशवाड्न्यायमयुखमाल:) जो अत्यन्त स्पष्ट बचनो के न्याय रूप
किरणो की माला से युक्त हैं तथा (पवित्र:) कर्ममल से रहित (सः) वे
चन्द्रप्रभ भगवान् (मे) मेरे (मन:) मन को (पूयात्) पवित्र करे।
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उपजाति छन्दः
एकान्त-दृष्टि-प्रतिषेधि तत्त्वं,
प्रमाण-सिद्ध त-दतत्-स्वभावम् ।
त्यया प्रणीतं सुविधे! स्वधाम्ना,
नैतत्समा-लीढ-पदं त्व-दन्यै: ॥ (4)
अन्वयार्थ: (सुविधे) हे सुविधिनाथ भगवन्। (त्वया) आपके द्वारा (स्वधाम्ना)
अपने ज्ञानरूप तेज से (प्रणीत) प्रतिपादित (तत्त्व) जीवादि पदार्थ
(एकान्तदृष्टिप्रतिषेधि) एकान्त दर्शन का निषेध करने वाला है, (प्रमाणसिद्ध)
प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है तथा (तदतत्स्वभावम) तत् और अतत् स्वभाव
को लिए है अर्थात् विधि निषेध रूप है। हे भगवन् (एतत्) यह तत्त्व
(त्वदन्यै) आपसे भिन्न सुगत आदि के द्वारा (समालीढपद न) अनुभूत
स्थान वाला नहीं हे, सुगतादि के द्वारा ऐसा तत्त्व प्रतिपादित नहीं हो सका
है।
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।
तदेव च स्थानू न तदेव अर स्थात्,
तथाप्रतीतेस्तव तत्कथज्चित् ।
नात्यन्त-मन्यत्व-मनन्यता च,
विधेर्निषेधस्थ च शून्य-दोषात् ॥ (42)
अन्वयार्थ: हे सुविधि जिनेन्द्र! (तव) आपका (तत्) वह तत्त्व (कथज्चितृ)
किसी अपेक्षा से (तदेव च स्यात्) तद्गप ही है (च) और (कर्थज्चित)
किसी अपेक्षा से (तदेव न स्यातू) तद्रप नहीं है क्योंकि (तथा प्रतीते-) उस
प्रकार की प्रतीति होती है। (विधे*) विधि (च) और (निषेधस्थ) निषेध
मे (अत्यन्त) सर्वधा (न अन्यत्वम) न भिन्नता है (च) और (न
अनन्यता) न अभिनतता है क्योंकि ऐसा मानने से (शून्य दोषात्) शून्यता का
दोष लगता है।
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शाएडंग्रा02 ॥85 8 /24/7०287 ९ 75 0जा गर्वापानओं 07, 72 58072 35 एटा
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छर्रिशिशा।॥ ग6 7० 46६९ 8 )रणा]बे पाशा ए9थाए ता ता5 छ|्तए ९एशफए
5008870 0९ 38 ९00ए€68 छत 8 ताईं 2९ वा 7059८८ ० ॥5
डारबट/ए57/9 72 शब8९ 7 ॥435 व शंबापाएणज णिग, री) (8४2 णा गर्बाप्राथों
णिया) जगा जा उटटिशाटट [0 फक्कटब/एडस्/ब):2 इंवॉट 7| 08428 पड
एश्च णिआ थाएं ज़ाणुरएंड 3 वालिलां 77228 (णिग), 75स्247)2 उिछा ॥
72म 508९ ॥62 5 चशा।श शाजबताए गण तरलिटा०ट ॥ 0९ छए० 7005
((जणा75) &ए०क्शाल्ट ण' 0गए णार णी(९ णिग्रा5 गाव शट॒ुल्लाणा 0॥९
ए०प्ीश छिएा सटबां5 4 विएाए आबांट ण ऑप्या, एणत 0 ॥0त्गह्वा7258
कार डफयलेंक रा उधर एक्ाश्थ72. 79
नित्यं तदे-बेद-मिति प्रतीतेर्
न नित्य-मन्यत्-प्रतिपत्ति सिद्धेः ।
न तद्विरुद्धं बहि-रन्तरड्भ-,
'निमित्त-नैमित्तिक-योग-तस्ते ॥ (43)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (इदं तदेव) यह वही है (इति) इस प्रकार
(प्रतीते:) प्रतीति होने से तत्त्व (नित्य) नित्य है और (अन्यप्रतिपत्तिसिद्धे:)
यह अन्य है इस प्रकार प्रतीति होने से (नित्यं न) नित्य नहीं है तथा (ते)
आपके मत मे (बहिरन्तरड्ग) बहिरड़ व अन्तरड्ग (निमित्त) कारण और
(नैमित्तिक) कार्य के (योगतः) योग से (तद) वह नित्यानित्यात्म तत्त्व
(विरूद्ध न) विरूद्ध भी नहीं है।
ग्राायाा। (2ं2-एटर्व4-270-/77//27
खबर गातब-्काबा2/(973079260-5764702॥
गब (क्वायाप्रव7/477 08#7-4777व747784,
ग277779-782777/7/9-)77022-/85/2 (43)
गराहा77 - एशावश्यालरा, (22228 - 6९ 80९, 22977 - 8 75, 77- वा
[78 ए३१५, एाब7/2# - (बव/४ ण आएडाॉंबा0: 0॥ 397८०7702, 78 - 5
0 गा0ताए - छथाभाशां, 772/- ॥ 75 धरलशिशया, 2797/79/7-
72727 - 99 बएएटकाप्राए. 50, 77 -+ ॥00, (4 - पा ए९४ट१०९९ ०
एुथाप्रारता &30 7 रणकुथशपक्षारकरा, फाएठ८/3877 - 75$ 250 गठ
०णाब्रगाल0, 2६77- राॉशिपयवां, बाएब्राब787- प्रशाओं, एफ
- 080३2८5 70, 248777/0/8 - छा0(फए८ॉ ए, ए2६22(४7 - ॥९८ टॉट्ट 0
579९2८बो टशलापाइईंबव025, /2- 08520 0 ९ 0एणालट्श5$ छ7णुण०प्रशतट6
799 बकलट, 0 5फ्ावा उ्षशाता4
व 8 5प0डंब्रा72€ 0टएाट5 5क्राशा९55, (44 [7ट48॥5 82809509 $च्चाट
2706 89580ंशुए प्राक्रशथाए&्व था था। शं22९४, किला 2 ॥॥/एर ० 0९
$0988826 ॥8 कुलाणबाटा, एप वा ॥ 35 क्रॉटि्यई था एछ7जशाड
लशाटएआडईबाट25, पौधा या 5 70॥-कटाप्वादा। 385८७ 0ा ९
प्रफ॒णाटडड फजाकुएण१4८6त 9५४ 76९९८, 0 .ग6 5प्रशवता गाल्तब,
ता लाकाएुट 5 00९८ (0 टुएंटावबों ब्राद प्रटायावरं एशल्घए78८४, भाव 7६ 8
9000८ रण फट लींट्ट छी 5०लफटिव लाटफ्शाडइंश्राए23, तशर ॥8 70
एजाप्बरवांटाणा व ब००कतग्रड 02 0टलाहला62 ० तग्मव्वाँ पर्कांपार 0०
ह0.. ऊद्राब्रकाशप 074
फ़ुशाबराशध708९ 870 .0०॥-कुशगाशाशाट्ट 9 8 5एफ:४घा2९
व॒फ्छ्ठ 55 छिएश ९0०)१४४९वं 35 00 5
एइाजारट 0ए९08८ ढप्रटत एछएडाए ता पाए प्ो पटाणए ण
7200ट८ए०ा वा ३९5९८ 0 ३ $5प्रंशक्ा22 - पीश ॥ 88 02 538॥7९, जोरों)
२35 5९शा €्क्वावार ० लसाताडइंटव टाल ॥8 शागरर्त 2/80/220॥/-7479
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अनेक-मेक॑ चर पदस्य वाच्य॑,
वृक्षा इति प्रत्ययवत् प्रकृत्या।
आकाड॒ःक्षिण: स्या-दिति वै निपातो,
गुणान-पेक्षे निय-मेडपवाद: ॥ (44)
अन्ययार्थ - हे भगवन्! (पदस्य) सुबन्त तिडन्त रूप शब्द की (वाचय)
अभिधेय-प्रतिपाद्य विषय (प्रकृत्या) स्वभाव से ही (वृक्षा इति प्रत्ययवत्)
वृक्ष इस ज्ञान की तरह (अनेक) अनेक (च) और (एक) एक दोनो रूप
होता है। (आकाड्क्षिण:) विरोधी धर्म के प्रतिपादन की इच्छा रखने वाले
पुरूष के (स्यात् इति निपात.) कथज्चित् अर्थ का प्रतिपादक स्यात् यह
शब्द (गुणानपेक्षे) गौण अर्थ की अपेक्षा न रखेने वाले (नियमे) सर्वथा
एकान्त रूप कथन में (वै) निश्चय से (अपवाद:) बाधक है।
दम डप्रध्ादीए जान ठीशएडएलआा है]
शटॉबनयटॉका ८8 9849 6578 पबटान्ए),
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705 पा ८
गुण-प्रधानार्थ-मिदं हि वाक्य,
जिनस्य ते तद् द्विषता-म्रपथ्यम्।
ततो5भि-वन्द्यं जग-दीश्वराणा,
ममापि साधोस्तव पाद-पद्मम् ॥ (45)
अन्वयार्थ: हे भगवन्। (जिनस्य) कर्म रूप शत्रुओं को जीतने वाले (ते)
आपका (इृदम्) यह जो (गुणप्रधानार्थम) गौण और प्रधान अर्थ से युक्त
(वाक्य) वाक्य है (तद्) वह (हि) निश्चय से (द्विषताम्) ट्वेष रखने वाले
सर्वथा एकान्तवादियो के लिये (अपध्यम्) अनिष्ट है (तत:) इसलिए
5#5 डप्यट 72 5/2एक/470.. 83
(साधो:) समस्त कर्मों का क्षय करने के लिये प्रयलशील (तव) आपके
(पादपद्म) चरण कमल (जगदीश्वराणा) तीनों जगत् के स्वामी इन्द्र
चक्रवर्ती तथा घरणेन्द्र के और (ममाषि) मुझ समन्तभद्र के भी (अभिवन्द्॑)
वन्दनीय हैं।
दिप्पाब-फाव#एबारीब-या।्तव77 7 ४2ब77,
#फाबडादब (2 दर्द स्/7574/4-7797420 7777 *
६/0०0॥7-एब्ख्दखबदा /ब8-4/57 एब्र/व74772,
ग्राशागब उ42408बाद 2248-984787.. (45)
8एएब-एाव7727//477 - तंत्वाताए जाप 000 फाापाए 8॥0
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उपाए पतला छागरटफ्ॉट्व फज़ाटबकाए5, तंट्यागाए जाएं छाप्राद्ाए द्रात॑
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वंशस्थ छउन्दः
न शीतलाश् चन्दन-चन्द्र-रश्मयो,
न गाड्ु-मम्भो न च हार-यष्टय: ।
यथा मुनेस्तेडनघ-
शमाम्बु-गर्भा: शिशिरा विपश्चिताम् ॥ (46)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (मुने: ते) चराचर को प्रत्यक्ष जानने वाले आप
शीतल जिनेन्द्र की (शमाम्बुगर्भा:) शान्तिरूप जल से मिश्रित
(अनघवाक्यरश्मय:) निर्दोष बचन रूप किरणें (विपश्चितां) हेयोपादेय
तत्त्व को जानने वाले विद्वानों के लिये (यथा) जिस प्रकार (शिशिरा:)
शीतल है [संसार संताप को नष्टकर शान्ति पहुँचाने वाली है| [तथा « उस
प्रकार] (चन्दनचन्द्ररश्मय:) चन्दन और चन्द्रमा कौ किरणें (न शीतला:)
शीतल नहीं है (गाड्रमम्भ:) गद्भा नदी का जल (न शीतला:) शीतल नहीं
है (च) और (हारयष्टयो न शीतला:) मोतियों की मालाएँ शीतल नहीं हैं।
गब उपगा457 ट्व70427/-087द4-7257772805
यह ढडादुब्बचच्ा॥772460 20 लड़ सकाव- ब्रा ॥2
उन खपफ्ाटडट-सानदन- एव उब्ीफातुवी
बीब227720-:62970742/7 5#7४:7774 7792522772:77. (46)
86. 8४४:7727 &/0/7
कड - 7०, उगमाद्चाए - ०0००, टब्मतंह04 - $च्मापंव 9४४८, 2क्रततीड-
#बडीफाबार - ॥00 7995, 78 - ॥०, €क्ाहब-न/द्ा08#- (०४788
जआधांटा, 728 - 70, 2474-85//क087- 7८९१०७९८ एस फ़ुट्वा5, )008 -
235 पीता ए गिशा गीबां, 2707227 - 905९5शाह टॉटड7 पाएजा2तट्टट ए
भी फर्श बात ॥णा-तणाए एशा85, ८/2- 779 0, धए छ5प्रांबा॥
फ्रालावाब, 274,274 - ग9जण९५5, $णी बा0 ८बॉ077, एब//८4च/&गीबार
>ऐश्व0 स छ095, 3#477877727- 000 5989 0०0 97९८४०८पं 0६४77255,
&शा209/ - ग्राजट0 जात, 575978 -+ 02000 थभा0 77076 $5000778
[870, 778572(477 - एा5८ 9९० 207एशइद्मा। जग $07
0,770 ञयय 5१ उश्धाताब, 06 टॉल्टय रण धर एटथ्ा। ए 77५
4489ए2८55 ए005, ॥7560 शत 200 छऋ्ाबए 0 9९8०शी। ए8॥77285,
०7 ऐ९ पा068 0 जछा३९ गाशा शा0 बार 20ाएटाइबा जात (९
ए0णताए५४ ० ९ 50पफ0, $8 00006 भाव गराठार 50०07 ऐएशथा ए० ०
ह6 इब्7098 9१502, 2006 28728 एटा ठा ६ एटा प९ट३०८, (2४८
४८ ०४५ एछ95एवा ९0500, जात एन ्रण85 ७5099 प्राध्णावों
7९2९८
सुखाभि-लाषा-नल-दाह-मूच्छितं,
मनो निजं ज्ञान-मया-मृताम्बुभि- ।
व्यदिध्य-पस्त्नं विष-दाह-मोहित,
यथा भिषम्मनत्र-गुणै स्व-विग्रहम् ॥ (47)
अन्वयार्थ: (यथा) जिस प्रकार (विषदाहमोहित) विष रूपी दाह से
मूर्च्छित (स्वविग्रह) अपने शरीर को (भिषक्) वैद्य (मन्त्रगुणैः) मन्त्र के
गुणो के द्वारा शान््त करता है उसी प्रकार हे भगवन्! (त्व) आपने
(सुखाभिलाषानलदाहमूच्छित) वेैषयिक सुखो की अभिलाषा रूप अग्नि
की दाह से मूच्छित (निज) अपने (मन:) मन को (ज्ञानमयामृताम्बुभि:)
ज्ञानामृतरूप जल के द्वारा (व्यदिध्यप:) शान्त किया था।
37६4077-/8574-702/4-4/8-77 07277,
ग74770 गयुद्वए 774778-778 7ब-7777/4777070/7/
फबवावव73-7850777 परदीव-०4/4-770#78772,
उ्राब 0#75742772779-677477 उ/ब-ग679/877 (47)
57578 आध2 ठैक्वाबाएबह/ए2.. है?
उपाबह - जणाताए 00क्राणिछड, #27//428 - तैट्शार 0, 8704//9/8 -
गरल्दा 9 गिर, करापाटीआधारए - एा०एणाइटाणाड, 77877 - गाए बद्रात॑
8णा।, गठु॥7 - 779 0ण, गाब74-776ब - 5पफाटा८ ॥09९086,
477777/872078/777 - 99५ [९ खल्टांबा ९ ९0० गद्वांटा 0
एडबट/4772227 + गत ९७702९6, (2872 - 7॥6९, ॥275724/9./28 -
एगा।एिं टॉटिट, 7707768477 - ॥8062 पएरा2075270प5 07 780५
पादविए3८९० जाए, ॥808 - 35 णा ॥त प6 इध्ाट एच, 2075६ -
ध्कारदएब (9#फशटाबा), 772707-&07277 - ०7५9 धएएट ण शीटबटए ०
प्राश्चत35, 378 - णीा€$ 0जए7 900ए, शदग३8777 - ४000९5 0" लाएट$
45 3 गला (एब्ादाएल णा जाए््रराद्ा) प्रशाहु 06 शीएबटए ण एल
णएी एरगरा7३5, 09%९2५ 0८ द्वित्राए08 कुशां 280४2 एए 79050 गिणा
जा$ 0जा 9007, भा ४८ $870९ ४४४५, 0, 907 9]9088 7स्0९085, ४५७४४
प6 ॥९्लबा वह 000 जधाांट/ ० 79 इफाशाल 0एछा९08८,१४०ए
हा 5000०क्९6 बा0 एबटला2व पफ प्राप्त बात 50पां
स्व-जीविते काम-सुखे च तृष्णया,
दिबा श्रमार्ता निशि शेरते प्रजा: ।
त्व-मार्य नकक््तंदिव-मप्रमत्तवां-
नजागरे-बात्म-विशुद्ध-वर्त्मनि ॥ (48)
अन्ययार्थ: (प्रजा) लौकिक जन (स्वजीविते) अपने जीवन (च) और
(कामसुखे) स्त्री आदि की अभिलाषा से उत्पन्न काम सुख की (तृष्णया)
तृष्णा से (दिवा) दिन मे ( श्रमार्ता:) सेवाकृषि आदि के श्रम से दुःखी रहते
हैं और (निशि) रात्रि मे (शेरते) सो जाते हैं परन्तु (हे आर्य) हे
शीतलनाथ। (त्वमू) आप (नकतंदिवम्) रातदिन (अप्रमत्तवान्) प्रमाद
रहित हो (आत्मविशुद्ध वर्त्मनि) आत्मा को अत्यन्त शुद्ध करने वाले
सम्यग्दर्शनादि रूप मार्ग में (अजाग: एब) जागते ही रहे हैं।
कार: 72 ईबा74-67472 ८2 075/#7:4,
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अपत्य-वित्तोत्तर-लोक-तृष्णया,
तपस्विन: केचन कर्म कुर्वते ।
भवान् पुनर्जन्म-जरा-जिहासया,
त्रयीं प्रवृत्ति सम-धी-रवा-रुणत् ॥ (49)
अन्ययार्थ: (केचन) कितने ही (तपस्विन:) अग्निहोतृ आदि, दयनीय
प्राणी अथवा ब्रतीजन (अपत्यवित्तोत्ततलोकतृष्णया) सनन््तान धन तथा
उत्तरलोक-परलोक या उत्कृष्ट लोक की तृष्णा से (कर्म) अग्निहोम
आदि कार्य (कुर्वते) करते हैं (पुनः) किन्तु (भवान्) आपने (समधी:)
सम बुद्धि होकर (जन्मजराजिहासया) जन्म और जरा को छोडने की
कक । (त्रयीं प्रवृत्ति) मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को (अवारुणत्)
का है।
दमा ई#/2/9 छह उद्धार... 89
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त्व-मुत्तम-ज्योति-रज: क्य निर्वुतः
क््य ते परे बुद्धि-लबोद-धव-क्षता: ।
ततः स्व-निःश्रेयस-भावना-परैर्,
बुध-प्रवेके जिन-शीत लेड्यसे ॥ (50)
अन्वयार्थ: (हे शीतल जिन) हे शीतलनाथ जिनेन्द्र! (उत्तम ज्योतिः)
केवल ज्ञानरूप उत्कृष्ट ज्योति से सहित (अज:) पुनर्जन्म से रहित और
(निर्दुत:) सुखीभूत (त्वमू) आप (क्व) कहाँ और (बुद्धि-लवोद्धवक्षता:)
ज्ञान के लेशमात्र से उत्पन्न गर्व से नष्ट (ते परे) वे हरि हर आदि अन्य
देवता (क्व) कहाँ? दोनों में महान् अन्तर है (तत:) इसलिए
(स्वनिःश्रेयसभावनापरै:) आत्मकल्याण की भावना में तत्पर (बुधप्रवेकै:)
श्रेष्ठविद्वानों - गणधरादिक श्रेष्ठ ज्ञानियों के द्वारा (ईडूयसे) आप स्तुत हो
90. 8॥829/7707 &/08%
रहे हैं - आपकी स्तुति की जा रही है।
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उपजाति छन्दः
श्रेयानू जिन: श्रेयसि बर्त्मनीमा:,
श्रेय: प्रजा: शास-दजेय-वाक्य: ।
भवांश्चकासे भुवन-नत्रयेउस्मिन्,
नेको यथा वीत-घनो विवस्वान् ॥ (5)
अन्ययार्थ, (अजेयवाक्य ) अबाधित वचनो से युक्त (श्रेयान्ू जिन.) हे
श्रेयोजिन। (इमा, प्रजा:) इन ससारी जनों को ( श्रेयसि वर्त्मनि) कल्याणकारी
मोक्षमार्ग मे (श्रेयः शासत्) हित का उपदेश देते हुए (भवान्) आप
(अस्मिनू भुवनत्रये) इन तीनो लोको मे (एकः) अकेले ही (बीतघन:)
मेघो के आवरण से रहित (विवस्वान् यथा) सूर्य के समान (चकासे)
प्रकाशमान हुए हैं।
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विधि विंषक्त-प्रतिषेध-रूप: ,
प्रमाण-मत्रान्य-तरत्प्रधानम् ।
गुणो5परो मुख्य-नियाम-हेतुर्,
नय: स दृष्टान्त-समर्थ-नस्ते ॥ (52)
अन्वयार्थ: हे श्रेयोजिन! (ते) आपके मत मे (विषक्त-प्रतिषेधरूप:)
जिसमें कथज्चित् पर चतुष्टय की अपेक्षा नास्तित्व रूप भी तादात्म्यसम्बन्ध
से सम्बद्ध है ऐसा (विधि:) स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्तित्व (प्रमाणं)
प्रमाण का विषय है। (अत्र) इन विधि और प्रतिषेध में (अन्यतरत्) एक
(प्रधानम्) प्रधान है और (अपर:) दूसरा (गुण:) अप्रधान है। यहाँ
(मुख्यनियामहेतु:) मुख्य के नियम का जो हेतु है (नयः) वह नय है तथा
(सः:) वह नय (दृष्त्ान्तसमर्थन:) दृष्टान्त का समर्थन करने वाला है।
प्ाधधाः 754 8-9/727872९474-77787,
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जात ।शलिशधा०८ [0 ॥5 0जएा उडाबटव[एड(दब 52 (दीवार:॥ - 5पं०४47९९,
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टार(त 35 एरदाए, ९ एछजारट प्राष्य, ज़ात्राट ॥टड्क्राणा छ फ8६ 20
एाणल्याणा जी 8 ८०थ्रा। प्रएडाए९ ए7कुथाए एराति 7टशिशा०2 (0 8 वररयिशा(
एक7८8/प६कब (42078 - $प्रॉ)४्ञाा22, ६6220 - ९३ 0 ॥024007, ६व/
- पागरट, 296 20874 - त590शआएणा) 5 शिाारवं 2१० ० 06 पट्2६४ए९
शगर्ज़ 807 6 790शाएट 85 एशी 35॥684807ए९ 900९0८5 80 ६0 ९४कंाओ।]
ह९64शा।॥ए एस 06 $पर/४ं470९, 0 6 छ0, 7 3 छ8ए, क्षार प्रधाबशपर
९णा7रटटलटव ज्रा। ९8७ 7ीलाः का ३ एमए ४९ 90076 ॥8 007९:26
जा ॥6 7९22४0ए८ धात रा०८-एथ89, ॥९2 7९240ए९८ 0 (6 70॥0९2८ 8007
प€ 7०थार€ क्षात 728980९९ फ0727/0८६5 #&€ रशए प्रापलकी! वरटिया। 77
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गाश्ााणा ॥6 ठगाटा ४ 6 ४४72 76९ जगह छाए णिजबाएं ॥5
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बुफ्ाष प्र्ठा70500929 एछी ४6९ 59:कट: छा 06 86५४0९8॥८ ॥5 पट९0 85
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288 5९८06 ए४ भा06 राटट-एश$8, $507टगरगाट5 प्र€ 7ट940ए6९ 75$ 77802 (0
[00 85 ज़ायवा€ 2१6 06 90श7५९ 5९८एणा१&॥ए [क्रा5 टटवाा0!९ 59705
९ ०0णा॥काटाणए एब्रापाट 9 छज़ाफुशाए ॥ 3 5ए70४9॥02
विवक्षितो मुख्य इतीष्य-तेउन्यो,
गुणो5विवक्षो न निरात्म-कस्ते ।
तथारि-मित्रानु-भयादि-शक्तिर्,
द्वया-वश्चि: कार्य-करं हि वस्तु ॥ (53)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (ते) आपके मत में (विवक्षित-) विवक्षित पदार्थ
(मुख्य इतीष्यते) मुख्य कहलाता है और (अन्य:) दूसरा अविवक्षित पदार्थ
(गुण:) गौण कहलाता है। (अविवक्ष-) जो पदार्थ अविवक्षित है बह
(निरात्मक. न) अभावरूप नहीं है (तथा) मुख्य और गौण की इस विधि
कल डक सबब उदकाकययकाा. 95
से (वस्तु) पदार्थ ( अरिमित्रानुभयादिशक्ति;) शत्रु मित्र और अनुभय आदि
शक्तियों से युक्त होता है (हि) निश्चय से समस्त पदार्थों की (द्वथावधि:)
भाव अभाव अथवा द्रव्य और पर्याय रूप मर्यादा है और उसी मर्यादा का
आश्रय कर वस्तु (कार्यकर) कार्यकारी होती है।
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दृष्टान्त-सिद्धा-बुभवो पिंबादे,
साध्यं प्रसिदध्येन् न तु तादृगस्ति ।
यत्सर्वथैकान्त-नियामि-दृष्टं
त्वदीय दृष्टि-विंभवत्यशेषे ॥ (54)
अन्ययार्थ; (उभयो:) वादी और प्रतिवादी के (विवादे) विवाद में
दा 5मासए उपाब ठीवाय272... 97
(दृष्टन्तसिद्धौ) उदाहरण की सिद्धि होने पर (साध्यं) साध्य (प्रसिद्धयेत्)
अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है (तु) परन्तु (तादुक् न दृष्टं अस्ति) वैसी
दृष्टन्त भूत कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं है (यत्) जो (सर्वशैकान्तनियामि)
सर्वथा एकान्तवाद का नियमन करने वाली हो क्योंकि (त्वदीयदृष्टि:)
आपका अनेकान्त मत (अशेषे) समस्त-साध्य, साधन और दुृष्टान्त में
(विभवति) अपना प्रभाव डाले हुए हैं। हु
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एकान्त-दृष्टि-प्रतिषेध-सिद्धिर
न्यायेषुभि मोहरिपुं निरस्य ।
असि सम कैबल्य-विभूति-सम्राट,
ततस्त्व-महँन् नसि में स्तवाह: ॥ (55)
अन्वयार्थ, हे श्रेयो जिनेन्द्र! (एकान्दृष्टिप्रतिषेघसिद्धि.) एकान्तदृष्टि के
निषेध की सिद्धि (न्यायेषुभि-) न्याय रूप वाणो के द्वारा होती है अर्थात्
आपने न्याय रूप वाणो के द्वारा सर्वधा एकात वादियों का निराकरण कर
उन पर विजय प्राप्त की है और (यत ) जिस कारण आप (मोहरिपु)
अज्ञानरूपी शत्रु अथवा मोहनीय आदि कर्मों को (निरस्य) नष्ट कर
(कैवल्यविभूतिसग्राटू) केवलज्ञान रूप विभूति अथवा समवशरणादि रूप
लक्ष्मी के सम्राट् (असि सम) हुए हैं (तत:) इस कारण (आर्हन्) हे अर्हन्त
(त्वमू) आप (मे) मेरे (स्तवाह्;) स्तवन के योग्य (असि) हैं अर्थात् मै
आपकी स्तुति करता हूँ।
2९(7(8-८775402-772/5720/78-576077;
दुाकर52ए00फ7 .00क77पए7 मावड
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वफ्ठ्प बात पल826 [052 एण्ड 0 प€ टॉटडगाड॑ंड भाव 8002 एटए0
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दाग्राब९्त प€ शाध्या९5 + गाशिंएशाणा ॥0 38)णवक0०2८, 3॥0 ७५
फ़्ण्ाणड भी फट &27745, क्षक्रा८6 पीर फ्रक्षुट्ए रण ६ 778 8॥0
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] /5 एश एइ्याफक्ष३ 0, 0९ लझ्डा >740/#व्545 ॥४ - ]_ 88॥005 0७८०, 2
5#5ककव (चिणा०), 3 (फ्रवाकाता (र्ा50), 4 7ट्थए7 (धराएट पए्राफाए।85), 5
2;06409#7 (थग८ तप), 6 7४३४॥74 एक (औ०५2 ०। (0965), 7
8#दकाद्ा444 (80), 8 0एरछव बएका ((ध76 २०७०७)
2
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उपजाति छउन्द
शिवासु पृम्यो5भ्यु-दय-क्रियासु ,
त्यं वासुपूज्यस् त्रिदशेन्द्र-पूज्य: ।
मयापि पूज्योइल्प-घधिया मुनीन्द्र,
दीपार्चिषा कि तपनो न पूज्य- ॥ (56)
अन्वयार्थ, (हे मुनीन्द्र) हे गणघरादि मुनियों के स्वामिन। (शिवासु)
कल्याणकारिणी (अभ्युदयक्रियासु) स्वर्गावतरण आदि कल्याणको की
क्रियाओ मे (पूज्य-) पूज्य (वासुपूज्य,) बासुपृज्य नाम को धारण करने
वाले (त्वमू) आप चूंकि (त्रिदशेन्द्रपूज्य:) इन्द्र तथा चक्रवर्ती आदि के
द्वारा पूज्य हैं अत: (अल्पधिया) अल्पबुद्धि के धारक (मयापि) मुझ
समन्तभद्र के द्वारा भी (पूज्य) पूज्य हैं (कि) क्या (दीपार्चिषा)
दीपशिखा के द्वारा (तपन:) सूर्य (न पृज्य:) पूजनीय नहीं होता।
डीपबडए 7प9/700/#7प्-ं॥78-/77 शब5प,
[एब770 ४25५०प7725 (774572774-7ए579.-
गरबएब्टा 7एाए7-474-व[एन करपमा6ीव,
परक्काराओड 477 ६82970 78 27प772/7 (56)
इशाब5ए + ॥0क्राल0प5, #पएाग? + ॥2ए९४९6, 22/ए7वक्द #द्रडप -
गा दो। (क्रुक्राएबब 2९फ्टाए॥ा25 पिंटट त2९३०2४वशर शरिएा फैटएशा, टॉ2 ,
402. उद्घुक्ा72/#ए 5/004
#ए॥77 - 07 ण पपर€ट, धबडप2पबं - ॥0क्ग्रा४ ॥72 776 0
४३४४फफ्ण एव, ध7ए495४727०78 - थी ह0जाए़ 604 370 0८ जाध्टश
णी लाबांतबएनाा 25, 7ए/:2/- आरज05777९0 859, फादाख्टा - 4,
इ््चागभादंजात्रवाब (2079052८7 एी' #९ 570, भॉ5०, >प्ग/87- ॥8ए2
पद्चा९8 (0 एण5॥79 776९९, 8/08-०77/8- था। 787एव्वा। प्राण ॥8५776
पशए शाप शाधा।$, शाफ्याए4/8 - 0, [९ एाइटा द्वा0 06 गरा0शं
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न पूजयार्थस्त्वयि बीतरागे,
न निन्दया नाथ विवान्त-वैरे ।
तथापि ते पुण्य-गुणस्मृति न॑.,
पुनातु चित्त दुरिताज्जनेभ्य, ॥ (57)
अन्बयार्थ (नाथ) हे स्वामिन्। यद्यपि (बीतरागे) राग से रहित (त्वयि)
आप मे (पूजया) पूजा के द्वारा (अर्थ: न) प्रयोजन नहीं है और
(विवान्तवैरे) बैर से रहित आप मे (निन््दया) निन््दा को द्वारा (अर्थ: न)
मतलब नही है (तथापि) तो भी (ते) आपके (पुण्यगुणस्मृति ) प्रशस्त
गुणों का स्मरण (न ) हमारे (चित्त) मन को (दुरिताज्जनेभ्य:) पापरूपी
अज्जन से (पुनातु) पवित्र करे-दूर रखें।
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पृज्यं जिन त्वाउर्चयतो जनस्य,
सावद्य-लेशो बहु-पुण्य-राशौ ।
दोषाय नाल॑ कणिका विषस्य,
न दूषिका शीत-शिवाम्बु-राशौ ॥ (58)
अन्वयार्थ. हे भगवन्! (पूज्य) इन्द्र आदि के द्वारा पूजनीय तथा (जिन)
कर्मरूप शत्रुओ को जीतने वाले (त्वा) आपकी (अर्चयत:ः) पूजा करने
वाले (जनस्थ) मनुष्य के जो (सावद्यलेश:) सराग परिणति अथवा
आरम्भादि जनित थोड़ा सा पाप का लेश होता है बह (बहुपुण्यराशौ) बहुत
भारी पुण्य की राशि में (दोषाय) दोष के लिये (अलं न) समर्थ नही है
क्योंकि (विषस्य) विष की (कणिका) अल्पमात्रा (शीतशिवाम्बुराशौ)
शीतल एवं आह्लादकारी जल से युक्त समुद्र मे (दूषिका न) दोष उत्पन्न
करने बाली नहीं है।
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यद-वस्तु बाह्मंं गुण-दोष-सूतेर,
निम्मित्त-मभ्यन्तर-मूल-हेतो: ।
अध्यात्म-वृत्तस्य तदद्ग-भूत-
मभ्यन्तरं केवल-मप्यलं ते ॥ (59)
अन्वयार्थ (यद् वस्तु) जो पुष्पादिक पदार्थ (गुणदोषसूते.) पुण्य और
पाप कौ उत्पत्ति के (बाह्य) बहिरग (निमित्त) कारण हैं (तद) वह
(अध्यात्मवृत्तस्य) आत्मा मे प्रवर्तने वाले (अभ्यन्तरमूलहेतो:)
अन्तरग-उपादानरूप मूलकारण का (अगभूत) सहकारी कारण है। हे
भगवन्। (ते) आपके मत में (अभ्यन्तर) अन्तरंग कारण (केवलमपि)
बाह्य वस्तु से निरपेक्ष और सापेक्ष दोनों ही प्रकार का (अल) गुण दोष
की उत्पत्ति में समर्थ है।
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कार्येषु ते द्रव्य-गतः स्वभाव: ।
नैबाउन्यथा मोक्ष-विधिश्च पुंसां,
तेनाउभि-वन्धस्त्व-मृषि-्ुधानाम् ॥ (60)
अन्वयार्थ हे भगवन्! (कार्येषु) घट आदि कार्यों मे (इय) यह जो
(बाह्येतरोपाधिसमग्रता) बाह्य और आभ्यन्तर कारणो की पूर्णता है बह (ते)
आपके मत मे (द्रव्यगत ) जीबादि द्रव्यगत (स्वभाव.) स्वभाव है
(अन्यथा) अन्य प्रकार से घटादि की विधि ही नही किन्तु (पुसा)
मोक्षाभिलाषी पुरूषो के (मोक्षविधिश्च) मोक्ष की विधि भी (नैव) घटित
नहीं होती है (तेन) इसलिए (ऋषि.) परम ऋद्धियो से युक्त (त्वम्)
आप (बुधाना) गणधरादिक जीवो के (अभिवन्द्य,) वन्दनीय है।
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७5ज पव49-0773 54एदड0977
वंशस्थ छन््दः
य एव नित्य-क्षणिका - दयो नया,
मिथो5न-पेक्षा: स्व-पर-प्रणाशिन: ।
त एव तत्त्यं बिमलस्य ते मुनेः,
परस्परेक्षा: स्व-परोप-कारिण: ॥ (6)
अन्वयार्थ. (ये एव) जो ही (नित्यक्षणिकादय: नया:) नित्य अथवा
क्षणिक आदि नय (मिथो5नपेक्षा-) परस्पर मे निरपेक्ष होकर अन्य मतो मे
(स्वपरप्रणाशिन-) निज और पर का नाश करने वाले हैं (ते एवं नया:)
वे ही नय (परस्परेक्षा-) परस्पर की अपेक्षा रखते हुए (स्वपरोपकारिण:)
निज और पर का उपकार करने वाले होकर (मुनेः) प्रत्यक्ष्षानी (त) आप
(विमलस्थ) विमल जिनेन्द्र के मन में (तत्त्व) वस्तु स्वरूप [भबन्ति] होते
हैं।
अब 2५8 777079-457977/92-29॥70 74/8,
सा/007-72(डद। 3ए4-0कब-एब7408477797
दघ 2एब (67 पायद्ा4ब5ब (2 77707727,
क/॥5047265#47 578-07870770-877727 (6])
>ब - 052 णा शाला, 28- बार धिट जाए, काठ - एशाबडाशशा,,
/#5#4 774 - ॥0-फटागभाशा ठा क्राण्राधाद्व, 2्वंशन। - टांट
दम रक्ा4/2- 4 (27477... 09
06 78, 24987 - 7९880ग्राहु 57 फश030०0 ०७%, 7770779275/47
- ॥2बगाह ९४०७ 8592० 88 6९कला5टाए छा प्ाह 0ताट' 35 एगलाटटत
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णि' णील्त, छाब्गाबदीपा - ००7)प85209 07 5970०श0ट, व टथ -
बाओं020०05 राज ता 788, (86#/एडस्7- ४0 0502 पट फटा पार्ट 0
प९ इफ्रैशंश्राट2, 777709/9598 - 35 ०णाफालाटा9९6 0५ [.000 पात्र
गाधारगठानब, /2- फरटट, खाए/लं - पीट एा5८5 548९, 702 0(2९
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यथैकश: कारक-मर्थ-सिद्धये,
समीक्ष्य शेधं स्व-सहाय-कारकम् ।
तथैव सामान्य-विशेष-मातृका,
नयास्तवेष्टा गुण-मुख्य-कल्पतः ॥ (62)
अन्वयार्थ: (यथा) जिस प्रकार (एकश:) एक-एक (कारकम्) उपादान
कारण या निमित्तकारण (स्वसहायकारक) अपनी सहायता करने वाले
(शेष) अन्य कारक की (समीक्ष्य) अच्छी तरह अपेक्षा करके ( अर्थसिद्धेय)
कार्य की सिद्धि के लिये समर्थ होता है (तथैब) उसी प्रकार
(सामान्यविशेषमातृका) सामान्य और विशेष से उत्पन्न अथवा सामान्य और
विशेष को जानने वाले एवं (गुणमुख्यकल्पत:) गौण और मुख्य की
कल्पना (तब) आपको (इष्ट:) अभिप्रेत (नया:) नय (अर्थसिद्धये)
कार्य की सिद्धि के लिये समर्थ हैं।
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प्रसिद्ध-सामान्य-विशेषयोस्तव ।
समग्र-ताउस्ति स्व-पराव-भासकं,
यथा प्रमाणं भुवि बुद्धि-लक्षणम् ॥ (63)
अन्ययार्थ- हे भगवना (यथा) जिस प्रकार (भुवि) पृथिवी पर
(स्वपरावभासक) स्व और पर को प्रकाशित करने वाला (बुद्धिलक्षण)
ज्ञानरूप लक्षण से युक्त (प्रमाण) प्रमाण प्रसिद्ध है (तथा) उसी प्रकार
(तब) आपके मत में (परस्परेक्षान्वयभेदलिद्भतः) परस्पर एक दूसरे की
अपेक्षा रखने वाले अभेद और भेद ज्ञान से (प्रसिद्धसामान्यविशेष्यो:)
प्रसिद्ध सामान्य और विशेष की (समग्रता) पूर्णता (अस्ति) विद्यमान है।
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€$४908] 007फऐॉटं2 प्बांप्रार एण 3 5प्ररडशंभा0८
विशेष्य-वाच्यस्थ विशेषणं वबचो,
यतो विशेष्यं विनियम्यते चर यत्।
तयोश्च सामान्य-मति-प्रसज्थते ,
विवक्षितात्स्या-दिति तेउन्य-वर्जनम् ॥ (64)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (विशेषवाच्यस्य) वाच्यभूत विशेष का (तत्) वह
(वच;) वचन (यत:) जिससे (विशेष्यं) विशेष्य (विनियम्यते) नियमित
किया जाता है (विशेषण) विशेषण कहलाता है (च) और (यत्) जो
(विनियम्यते) नियमित होता है (तत्) वह (विशेष्यं) विशेष्य कहलाता है
(च) और (तयो:) उन विशेषण और विशेष्य में यद्यपि (सामान्यमतिप्रसज्यते)
सामान्य का प्रसग आता है परन्तु (ते) आपके मत मे (स्थादिति)
कथज्चित अर्थ के वाचक स्यातू पद के द्वारा (विवक्षितात्) विवज्षित्
विशेषण विशेष्य से (अन्यवर्जनम्) अविवक्षित विशेषण विशेष्य का
परिहार हो जाता है।
ग्रस्टड७-ध्कट-एब5य ४2 2डीकयवाल ए52
>गरईऑएनवड2ीउबक-फएकाफट टब उडा!:
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प्रार#/587657ब-०70-/2798-४8४/७72277 (64)
प्रद2-/ए78-४8274508 - एए९०शा९्व छल जारी एड 7टड5शा8६0१ ७५
फ्र€ ऋुणंशा फ़णा0, गरह#2४गपबाए - 782250487 0 #6 तृषद्रातिणतह8
4कुट्लाएट, ए28/ - शंडाटाएशाई 0 02८ एएणा0, ॥2८४7 - जाला,
र50#65077 -- 5#25778 ० फल वृण्थायट्त काल, पफ्राकबव/ट -
पृणष्बात6९5, ८६ - भात॑, 7/- शाला 5 वुतशात९0, (8/- विव्वा, (87४07 -
पणपशी 70 पा वुष्द्ाज़िाह 2१6 पट वएभ्रातिटिव छाएफ्टााट$ प 87
७)्णं, ८8 - 2१0, द्बचक्र#7पपबन2207-2772522/९ - 85502420 जाते
०णाध्रणरघट55४ छा इलाशबाए, ध्व/577/8/ - ॥20426 (ृण्धाशिएर
था6 परा९ प्राधांट762९6 (ृएभाएटव क्राएएट, डाक्टाध- ०ए 0९ ए5८ ०
वार जणवच “27, गराध्या8 (॥ 3 टशॉदा) 20025", /2- ४०८०0७०072
0 76०९८, 0 प्राकाब। उ.्रक्वा3, बहावाशगट्ाभपवार - ।टीकआ)5
जात 07 अंग्वाटायालाए प्राबवा वणभॉग25 02 बरागणएए/26 00०2 जरांपला ॥5
7ट्फश्ड्शाव्त एप धार ऋुठाशा जणप (एबटा2 2#ए/2 7572572), ॥5
€ब्ा९४ प्र&/2औब7 0 पर 868९ल7एट, 200 फट पृष्थाग९१ 6009]6० 5
(7726 ॥57825878 यगाणाडईं ०00, घाट शा5725/87 था0 7९
प्#॥2570४8 कुएभारा॥एए 5ट९क॥ (0 96 85502वरा24 जा) 207रग्माणगा८5५
0 इशाशभ्राए (आधञाकगाए), 82०200काहए ६0 796९९, 0,.00 एशजा9
गाशावब, धार ए्रड९ ण पीर जणव 87242/ ग्राट्क्गाह (वा 8 सशांभा)
एणाध्जा”, कधीथरा)8$ णा $९७३7४82९$ 6 फाॉटा0९6त ?75/7258437
(ृण्थाजिए?३ आपफ्रएट) 270 06 ए5/2579 (पप्थाव९त काल्लट) 0ए
पाट प्रगाश्ञाटाव९0 गर5/25847 (कृप्आारजि?2 आता पट) 200 (९
प्रद॥25778 (वृपथभाग९त ठएछ॒०ल)
वृफ्ाछ ७ चल लएलत॥20 ४६ णजी0फ़र$
वगछ आठाब ताइटाइडट३ सीट णिया एणी 775#65#97, बधाध्छारट ० पा
बाधा वृष॥द्याजिए पर ०त॒ट्ल भाव फट प्रा5725#ए78, 6€ ९
पृण्भासध्त काल 4 बधांणएांट, क्रीतएी एणागाड ६0 3 इ्ष्सबाज गा
॥॥ एाल्ण ण पृष्थाफटिड का कँ।०ल, 5 प्टपारत प्रह/टआॉब्ाए ॥90 (2
पृण्बागट्त कराल्ल छा छा कल बाएएए20 जाप (9 ९0१ ॥5
वाएथा ३5 पट एज ९2, जोश ए८ट 84५ 4 ए40 बाबर:
2९: 5 8 तर5डीटडगबए ता था 26टटाएट बात फट 58८९ ॥छश ॥5
प्रद्धट४0, 46 ॥९ व्र॒ण्शा5िएत क्ा०० (0 रत प्राब ऋुल्ल&
बाप्राएणएाल्व पपर कण्भाडत कराल्ल क०पा जाला $णरटापराड 5 5४0
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बध्लाएर बा6ह वर पषाति९०३व छलर (१75725#79) $0॥दांगा८5
बडडा॥02 0000700255 ॥॥0 $07स्20725 ध2ए 52207 ठंछझाग्रलाएट
ख5फुशााधंधा ण हाट 5एट८2, एं।2 00९ ॥९ जाड।९5 (0 57255 89285
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गाप्रशाता3, 798८ 076९ ज़ण0 $ए4/ट्बापाहु (प्रा टशांक्षा। एजांट्ड”,
गाब्रॉपट25 2 प्राटा020 0॥2 ॥8022९७(८6 800 भरधप्रोड 0९८ एव/शातद26
जाट
नयास्तव स्थात्पद-सत्य-लाउिछता,
रसोप-विद्धा इब लोह-धातव: ।
भवन्त्य-भिप्रेत-गुणा यतस्ततो,
अ्रवन्त-मार्या- प्रणता हितैषिण: ॥ (65)
अन्वयार्थ, हे भगवन्! (यत:) चूंकि (स्थात्पदसत्यलाज्छिता,) स्यात्पदरूपी
सत्य से चिहिनत (तव) आपके (नया:) नय (रसोपविद्धा-) रस से
अनुलिप्त (लोहधातव: इब) लोह-धातुओं के समान (अभिप्रेतगुणा:) इष्ट
गुणो से युक्त पक्ष में सुवर्ण आदि इष्ट पदार्थ के गुणों से युक्त ( भवन्ति)
होते है (तत:) इसलिए (हितैषिण.) हित के इच्छुक (आर्या:) गणधर
आदि उत्तम पुरूष (भवन्त) आपके प्रति (प्रणता:) नग्नीभूत हैं।
74 45/8४8 5)/990423-54/:8-4772777/4,
॥7850794- शव 7 708-474ग्राख
शक्षाब768-90/ए/2/ब-6€7/79 :8६८85/०/0,
2/वप््रप8-तपबा(बग वाक्य क्7/87577727 (65)
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अनन्त-दोषा-शय-विग्रहो ग्रहों,
विषद्भ-वान् मोह-मयश्चिरं हृदि।
यतो जितस्तत्त्य-रुचौ प्रसीदता,
त्वया ततो5भू भंगवा-ननन्त-जित् ॥ (66)
अन्वयार्थ : ( अनन्तदोषाशयविग्रह:) जिसका शरीर अनन्त रोगादि दोषों का
आधार तथा जो (चिरं) चिरकाल से (हृदि) हृदय में (विषंगवान्) सलग्न
था अथवा ममता भाव से सहित था। ऐसा (मोहमय:) मोहरूप (ग्रह:)
पिशाच (तत्त्वरुचौ) तत्त्व श्रद्धा में (प्रसीदता) प्रसन्न रहने वाले (त्वया)
आपके द्वारा (यत:) क्योंकि (जित:) जीत लिया गया था (तत:) इसलिए
आप (भगवान्) भगवान् (अनन्तजित्) अनन्तजित् इस सार्थक नाम को
धारण करने वाले (अभू:) हुए हैं।
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कषाय-नाम्नां द्विषतां प्रमाथिना-,
मशेषयन्-नाम भवा-नशेष-वित् |
विशोषणं मन्मथ दुर्मदा-मयं,
समाधि- भैषज्य-गुणै व्यलीनयत् ॥ (67)
अन्ययार्थ: हे भगवन्! (भवान) आप (प्रमाथिनाम्) दुःख देने वाले
(कषायनाम्ना) कषाय नामक (द्विषताम्) शत्रुओ के (नाम) नाम को हृदय
मे (अशेषयन्) समाप्त करते हुए (अशेषवित्) सर्वज्ञ हुए हैं तथा आपने
(समाधि भेषज्यगुणै:) ध्यानरूप औषधि के गुणों के द्वारा (विशोषण)
सताप कारक (मन्मथदुर्मदामय) कामदेव के दुष्ट दर्प रूपी रोग को
(व्यलीनयतू) विलीन किया है - नष्ट किया है।
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परि- श्रमाउम्बुर्भय-वबीचि-मालिनी ,
त्थया स्व-तृष्णा-सरि-दार्य! शोधिता ।
असद्गभ-घर्मार्क-गभस्ति-तेजसा,
पर॑ ततो निर्वति-धाम तावकम् ॥ (68)
अन्वयार्थ: (परिश्रमाम्बु:) जिसमें परिश्रम रूप जल भरा है और
( भयवीचिमालिनी) भयरूप तरगो की मालाएँ उठ रही हैं, ऐसी
(स्वतृष्णासरित) अपनी भोगाकाक्षारूप नदी (हे आर्य) हे पूज्य! (त्वया)
आपके द्वारा (असंगघर्मार्कगरभस्तितेजसा) निष्परिग्रहतारूप ग्रीष्मकालीन
सूर्य की किरणों के तेज से (शोषिता) सुखा दी गई है (तत:) इसलिए
(परम) उसके आगे विद्यमान (निर्वतिधाम) निर्वाणस्थान (ताबकम्)
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आपका ही है अथवा आपका अनन्तज्ञानादि तेज अत्यन्त उत्कृष्ट है।
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सुह्ययि श्रीसुभगत्व-मश्नुते
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प्रभो पर॑ चित्र-मिदं तबे-हितम् ॥ (69)
अन्वयार्थ; हे भगवन्! (त्वयि सुद्दद) आप मे उत्तम हृदय को रखने वाला
भक्त पुरुष (श्रीसुभगत्वम्) लक्ष्मी के बललभपने को (अश्नुते) प्राप्त होता
है और (त्वयि द्विषन्) आपमे द्वेष रखने वाला-अभकक््त पुरुष ( प्रत्ययवत्)
व्याकरण के प्रसिद्ध क्विप् आदि प्रत्ययों अथवा क्षायोपशमिक ज्ञान के
समान (प्रलीयते) नष्ट हो जाता है - चतुर्गति के दुःखो का अनुभव करता
है परन्तु (भवान) आप (तयोरपि) उन दोनो - भक्त और अभकक्त पुरूषों
के विषय मे (उदासीनतम.,) अत्यन्त उदासीन हैं - रागद्वेष से रहित हे
(प्रभो) हे स्वामिन! (तव) आपकी (इदम् ईहित) यह चेष्टा (पर
चित्रम्) अत्यन्त आश्चर्यकारी हैं।
उप्याए/एबय उ/ए757092984-7795/770/2
बरगागाडायाय 27405 क्वाए7(774/7202
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2280 #क्कगाक 2ध2-ग्रयार्थव?/ (#02-7८877 (69)
डए/#एव- 7क्राट 0९९४०९९ ॥8ण78 ९९७ शितत 7 5 वटद्वाए, /क7-
7 उफ्रट, डकाा + झा डा, 5ए20262077 - ९शव0९्वगराशा। 0,
७5772 - बिगाड़ छा 400ए८5, धीगाएव7 -+ 07-0९ए0८९, णा ८
णा९८ एशा0 ४४ 8एशइ३८ (0, ॥/87- (० वाल, 2720क्ख्व१४ह - गातट ती2
जएशी (तठ्जा ४ ए छा 02का फटाए, 0 पैल्शंपाए ज्रा5007,
एछएब5802- 0९४00फ९० गा एंड 0जा, छा प्॒रतषशएूए०2ट2३5 ह7९६९ प्रशष्टााट5
एी वह णिण इंब8८5, शीब्षाव7ए - ॥00 एज ॥्ट, प्रतंबदाएढ/277 -
००फ्राशशप 6श॥8००९९ 70॥7 76 एणा6, ७ 049 घ्रात्णाल्श्याध्व
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0686 छ #9जी। 62८ए०2८ 85 ज़ी 88 000-स्42एए0८९, /४7880- 07.006,
क्गाबा टध्यवए - व्जप्टाफशए जणावा0ए05, उदंकएए - फ्राड, 7क्रद्वाए -
डफ्टाओट वृण्बा
4 606 86ए0८९ श्नशाह 82९७ दिए पा गाड़ कैट्वश जा प्पाल््ट, ऐप
छाडशा जा पाड 0जा, जा३ 262870टा। 0 बीत टडातमा 3276
क्षाद्षा।5 जा5इड ४ ॥05-0९८ए002८ 07 0८ जञॉ0 ७ 8एटडट 00 7॥66, ॥
0९४९०7४९6 0०॥ 38 0ज७ञ॥, ]82 (८ अऋटं!।] द्रा0जा इएीीड गा
शिभागाशारटश शित्रा णा ॥6 विल्टापाह एा50णा (एाएएशॉ2(2८), 200
छ8९००आाल्ड & ब्पशिय ० 76 ॥रशाइट पाष्टार३ ण फैट 0 इप्टट४ ण
०ण्घटटःप्णा, णाग्र, गंव ब8९ भाव (लव 38० 00 था ६0009
फ्राट्णाप्टा९0 ज्ञात 507 - 42ए४०५८८ 85 एल 85 707-02८४०८८, द्रव
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वृथथा।ए ण [)्ञ्ञ९८ ७ >फ्शशालंप्र फततताणा$
त्व-मीदृशस्तादृश इत्ययं मम,
प्रलाप-लेशो 5ल््प-मते महामुने! ।
अशेष-माहात्म्य-मनी-रयन्-नपि,
शिवाय संस्पर्श इवामृताम्बुध्चे: ॥ (70)
अन्वयार्थ: (महामुने) हे समस्त पदार्थों के जानने वाले। (त्वम्) आप
(ईदृश:) ऐसे हैं (तादुश:) वैसे हैं (इति) इस प्रकार का (अय) यह
(मम अल्पमते:) मुझ अल्पबुद्धि का (प्रलापलेश:) थोडा सा प्रलाप
(अशेष-माहात्म्य) आपकी समस्त महिमा को (अनीरयन् अपि) न कहता
हुआ भी (अमृताम्बुधे:) अमृत रूप समुद्र के (सस्पर्श: इब) समीचीन
का के समान (शिवाय) मोक्ष के लिये है/मोक्ष सुख की प्राप्ति का कारण
|
#एब-47525/447758 76? यादव,
#ब/ब72-2520-4[94-77#627" यहा प्72/
45050 -ए4/ब/7:ब-फाव7-227-73/07,
डकएकब 5474%997548 ए47777/077072927 (70)
दााप अगन्कात फाड़ ठीकारइ7272.. 23
तब्बा- पाए त प्राण, ब्ा75727- भा 2 पड, ८579 - ज पट
प्राषं, 2४ - इएली, कछया - पंप, खाह्याब - घाट एज फार, मन -
प्रष्थाण्वां८55 ए्रपंटा॥02, /2508/7 - 2, 2[7ब-गाब्ाट0 - हञाणक्रा।,
#778/8 2072 - 0 फट उत्ताचछललशाए हाध्या 5822, 2502508 - 87फए 0,
सा#मीबध्ययबाा2 + ॥॥ज ह्वराट्बतटडड, बाएबबट - 70 2०9७8४०४९ ०
(टडलांणएह, 722727- ९एश), 57778)78-38 0ऋ€शश $प्रिटाट0६ (70८)
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5070 एाब्रा73 उगररव 59एशाधाा!
रथोद्धता उन्दः
धर्म-तीर्थ-मनघं प्रवर्तयन्,
धर्म इत्यनु-मत. सतां भवान्।
कर्म-कक्ष-मद-हत्तपो उग्निभिः
शर्म शाश्वत-मवाप शद्भुर: ॥ (7])
अन्वयार्थ, हे भगवन्! (अनघं) निदोंष (धर्मतीर्थं) धर्मरूपी तीर्थ अथवा
धर्म का प्रतिपादन करने वाले आगम की (प्रवर्तयन्) प्ररूपित करते हुए
( भवान्) आप (सता) गणधरदेवादि दिद्वानो के द्वारा (धर्म:) धर्म इस
सार्थक नाम से युक्त (अनुमत.) माने गये हैं। आपने (तपो5ग्निभि:) तप
रूपी अग्नियो के द्वारा (कर्मकक्षम्) कर्मरूपी वन को (अदहत्) जलाया
है तथा (शाश्वत) अविनाशी (शर्म) सुख (अवाप) प्राप्त किया है
इसलिए आप सत्पुरूषों के द्वारा (शकरः) शंकर इस नाम से युक्त
(अनुमत.) माने गये हैं।
4॥97779-077॥-गाब्राब्रगकए 4279: 7,
वॉयगयाब ॥काप्र-यउ4रावी उदय? 27
ईबा77844/5/9-7780/9-79092|700ए77877/,
ऑीगागयाब 5॥45/#व्व-या998 5297/4787 . (7])
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दधबार2बह 0777870- 6772 0 ता, 0 ४००१८ 0० एह्भी20ए/255,
0 प्रा स्टाफ 500०८ ० गश्धा( घा0जॉलव22, 224&8277 - 5िप्रंत255,
प्राफोशाएंदारत, छाडायाएशब7 - च्काश्इशाशो। एण' 0, 20277787 -
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देव-मानव-निकाय-सत्तमै-
रेजिबे परिवृतो वृतो बुध: ।
तारका परिवृतो5ति-पुष्कलो,
व्योम-नीव-शश-लाञछनोउमल: ॥ (72)
अन्वयार्थ: हे धर्मजिन! (देवमानवनिकायसत्तमै:) देव समूह और मनुष्य
समूह में अत्यन्त श्रेष्ठ भव्य जीवों के द्वारा (परिवृत:) चारों ओर से वेष्टित
तथा (बुधे;) गणघरादि विद्वानों से (वृत:) घिरे हुए आप (व्योमनि)
आकाश में (तारकापरिवृत:) ताराओं से परिवेष्टित (अमलः) घनपटलादि
मल से रहित (अतिपुष्कल:) संपूर्ण (शशलाब्छन: इब) चन्द्रमा के समान
(रेजिषे) सुशोभित हुए थे।
प्र८शब-पाबत 42-77) ॥-58/ 67797,
गषाओर फ्ाया7ए परए शादा,
लिबदम छब्था27/00-2975724/2
प्रशए्काबचााए#-5852-787272770772/47 (72)
[26 हशबडब्ा० 07
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०7 था 8025, 60८5 00 0९ 20५
प्रातिहार्य-विभवै- परिष्कृतो,
देहतोडपि विरतो भवा-नभूत्।
मोक्ष-मार्ग-मशिषन् नरामरान्,
नापि शासन-फलै-घणा-तुर: ॥ (73)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (भवान) आप ((प्रातिहार्यविभवै:) सिहासनादि
प्रातिहार्यों तथा समवशरणादि विभूतियों से (परिष्कृत:) विभूषित होते हुए
भी न केवल उनसे किन्तु (देहतो5पि) शरीर से भी (विरत:) ममत्व रहित
(अभूत्) थे तथा आपने (नरामरान्) मनुष्यों और देवो को (मोक्षामार्गम्)
मोक्षमार्ग का (अशिषत्) उपदेश दिया था फिर भी आप (शासनफलैषणातुर:)
उपदेश के फल की इच्छा से आतुर-व्यग्र (नापि अभूत्) नहीं हुए थे।
ए40/474-70040277 |87757/77/0,
ध४2॥2/0०27 प्राब/0 2#श्वाब-22770/
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ग्रबण 545474-0/0/9/-5/2274-/772/ (73)
ईशब#र8 - ॥706 (&प्र4527), टेट , ८ शहाए 7720/47985 भा
डबापबाब5ी4727, 020१7 - वाटर 5छाधात007 0, 4>8775/7/77(4/7
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पशाॉश, परण, &8854874-9748/97-5748702/07797- ९382, ण शाविएड4न४९0
बाण कट टॉल्ल णी डाटबलाएड5
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पाशधाधतवाएं।! ए' पणए 0797 7047 707 ग4ता फ़ार्बलाटत ब्ातव॑ शाठ्जा
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एश्णाक्षात९त 80800प/टीए प्राटएणारटा7९6, वश्यााटा' र्व8९ 707
लापवएड3502 +007 छा शलींटल 0 पट इशार णा 8०05 शा एप्राक्षा5
काय-वाक्य-मनसां प्रवृत्तयो,
नाभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया ।
नासमीक्ष्य भवत: प्रवृत्तयो,
धीर तावक-मचिन्त्य-मीहितम् ॥ (74)
अन्ययार्थ :- हे नाथ! (तव) आप (मुने:) प्रत्यक्षज्षाना के (कायवाक्यमनसा)
काय वचन और मन की (प्रवृत्तय:) चेष्टाएँ (चिकीर्षया) करने की इच्छा
से (न अभवन्) नहीं हुईं तथा (भवतः) आपकी ((प्रवृत्तय:) प्रवृत्तियाँ -
चेष्टाएँ (असमीक्ष्य) वस्तुस्वरूप को ज्यो का त्यों जाने बिना (न अभवन्)
नही हुई। (हे धीर) हे धीर धर्म जिनेन्द्र! (तावकम्) आपका (ईहित)
चरित (अचिन्त्यं) अचिन्तनीय है - आश्चर्य करने वाला है।
ईक्ब-ावब/(/ब-ा॥र745977 टायाया/470
साबशीबाद्रा75/78 गाध7ट5/2/2775/2 7
गरबदबाए/गातब 2॥क्षब्रद्वए? 7277 /470
दब ध्ाए22-74ट770-7277077 (74)
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एघ्बराददयुबत -- ॥७ाएणाड, 28 - गरजार, #2/47कर7 - ७३5 एटाणिए/टत,
28 8797 $/009
घबा22- ० एप 0णा0, गागए727- 0 06 0प्राआइलला। 7.06, टायपदान
- ०ए री फन् वष्शाएट ण एलशाणिडऱ, 28 - गण, बडागा5/8 -
७000 8४९८८/बराशह 6 724] ॥8776९ ए' ह6 ठछ०ल, शीराद्व8-
पफाशल, क्राइ्प्रांगरबम। - 0५ बरलाशप, वएब - 0 ३इणेंशागाए झ्वाइ्सट
छाल जिबक्रयाब वंगरशाएाब, दए2477 - एी, 22077/8777 - एटफ7णा०
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बाओरट$अंप्र णा जातरणा बाज 600ट्रा: [क्नो००४॥॥८5६ &27श0८९5४ &४८ ए0]6
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पा0फए्टा। 770ए0:८ा३ह वा बिल, पाए लाकाइटाश भाव ९०णाराल वार 92८एणा06
एणाफकाशाटाधणा, गाव एलाएए प्रा] छठ कुूछगरलाएं ०णात0३020005, टक्रााठ
96 बएज़ारशा3९6 एणाच्टाए प्रण रटप्रशणाड बाठ 072 धएट १०४९९
बार 935९९ ग्रा। 06 फटाफ पार, पविाद्षाब, ॥॥0 एशरियारत वा
8०९८०७॥॥९९ शा 66९05 286 प्रशड्य९ (6९४9 ० पट धरा ०९०॥725
मानु्षी प्रकृति-मभ्य-तीतवान्,
देवता-स्वषि चर देवता यतः।
5787 2704/778 ०778 $/बाद्घ/&77. ]29
तेन नाथ पर-मासि देवता,
श्रेयसे जिन-बृष! प्रसीद न: ॥ (75)
अन्यथार्थ: हे भगवन्। (यतः) चूंकि आप (मानुषषी प्रकृति) मानव स्वभाव
को अतिक्रान्त कर गये हैं (च) और (देवतास्वपि) इन्द्र, चन्द्र आदि देवो
मे भी (देवता) देवता है/पूज्य हैं (तेन) इसलिए (हे नाथ) हे स्वामिन्।
आप (परमा देवता असि) उत्कृष्ट देवता हैं (हे जिनवृष) हे जिनेन्द्र।
(न:) हमारे (श्रेयसे) कल्याण के लिये (प्रसीद) प्रसन्न होइये।
ग्ाब्रएड/777 274/:760-7720/74-0/747,
ध्रटएबा4-5एब/ ८8 ८2/3/4 ):8647
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उग्टायब52 274-प75747 72957798 797 (75)
गाब्राएध5ी7777- विधवा, छकाएधा7- ]वापार, 22779 एद्घाद्वा - विशी।
$प्ाए355८06, 20768 उश्बका + र्एटा ब्रणाणाड ॥क्978 0 7.48
(८गग्रादीाबा74) 06 8005, ८३ - था0, धंट2३/2- 7९7शश१९ 005, ॥६/4.
>> 0णि 8 ०४०5९, ॥278 - ९९07९, 79278 - 0 ,0क, |2727477748 -
डशफफ्ञाटणा6, 28- करा, 4ं2८४४/४- ४००, 57727852- 0छि एलशब्रि९ 0 एशटी-
फ़्शाह8, 77774-775798 - 0 गराध्फपाब, छ97257448 - ॥89 राव एट
एॉ285९७ (0 7८8४0, 267 - 0ि ए$
(2,006, 85 ॥॥00 शबं) ४एए१5४2१ 8॥ ९ 75 ० प्रशत्रा। 79072
बात एटएशट6 76 छएण07शरफःए?ट्व 9 वावाब क्या प्रा (77000)
९ 22035, 50 फा4ए, 79ए .र/07 79९ 7728520 00%८50ए 77ए 92९5शआआ25
णा एड छा ०प ज्लॉीएशाडए 2०0 फ्रटोगशि<
6
5छ07 आधा ग्रा43 5ववएड79॥7
उपजाति छन््द:
विधाय रक्षां परतः प्रजानां,
राजा चिर॑ योउप्रतिम-प्रताप: ।
एव शान्तिर्,
मुनि दयामूर्ति-रिवाउघ-शान्तिमू ॥ (76)
अन्वयार्थ: (य:) जो शान्तिजिनेन्द्र (परत:) शत्रुओ से (प्रजाना) प्रजाजनों
की (रक्षा विधाय) रक्षा कर (चिर) चिरकाल तक पहले (अप्रतिमप्रताप:)
अतुल्य पराक्रमी (राजा) राजा हुए और (पुरम्तात्) फिर (स्वत एव) स्वय
ही (मुनि:) मुनि होकर जिन्होंने (दयामूर्तिरिव) दया की मूर्ति की तरह
(अधघशान्तिं) पापों की शान्ति (व्यधात्) की।
प्र449॥ 78507 7872/437 [74/927477,
गडंब लाबए 70 गछाबा/प्राबकाबाबएच7
79%7/2/(7प/-४/ब5/2 टाए2 उगिबप7ए
ग्राप्राफा' बबुएबापापए7-यर2&6222-5427777 (76)
ग्रताबब - व458, 78/5॥27 - छएणजट्टाट्व, छद्व2/87 - "0 006९
टाशाएलड, 273/877977 - 5 इफरोा2ट5, 7 - एशह्टाट्त, टाब77- णएि 8
शषाए ]08 फट, उबर - जीस्0, 22780778 - जागव0फ7 आए ल्यूएथ,
278/9/287 - रात, 24770 धार (शाफुशण)), एशववव३/ -
एप्शडिटत ध्राड 800, एफबड/४/- ब॥0 (शा, उश्क्रब शा28-छ ॥5 0चाउशीए
547 ड/बयध सपा उीनवशक्राबाय. ॥3]
ाप0ठएा बाए वध्तप्लाका रण ०एड52९, 8777 - 0 7.0 5 5थ्ाए
की उंधिटातात, घर - ए2000756 बच 8३०८2 ३882, /497 एप
- शाफ्रेणपीगाला ण ठ0णाएशडडणा ब7व दा95253, 7४४ - 72, 4678-
ब्बा27- एबथणिाए थी फैट ला ईबा7785
एफाछ बराठा:4 2र्जण०ट्राइटड तट डजाल्टाफं पराफिब्योट्आव, 7.00 50
रफ गंगरला।ातब, क्र0 स्थल शत 3 र््ाशा। सोडोंटा2ए४70 09
(शाफुटा00, 226 एछाणट्टट3 हा ए९ण्ार (3ए८्टंड) 707 पका
शाशाएर३, 7शएक2ट0 छा 3 एश९ए 4ण8 पराधद€ ३.8९, जा काड 09७,
जापा0ए भधाए शाालाणा 705 ०रजिवंट, हशथाणाए ४४४३८ (0 बा। (९
एणांताए छॉंटडडा725, 83876 एए 8 शाए्ार ॥7780070 874 ए222772 ॥
85060 3882, 80 ॥(2 (९ क्टाप्र ८००कागथशा। एण 0००008550॥ 470
प्रावा€४5, छ_टचज़िशर ४ 6 ९एा &बार795 णंश्रॉप 2287520 धाड ४207
अक्रेण यः शत्रु-भयंकरेण,
जित्या नृपः सर्व नरेद्ध-चक्रम्।
समाधि-चक्रेण पुन जिंगाय,
महोदयो दुर्जय-मोह-चक्रम् ॥ (77)
अन्ययार्थ: (महोदय:) गर्भावतरण आदि कल्याणकों की परम्परा से युक्त
(यः) जो शान्तिनाथ गृहस्थावस्था में (शत्रुभयंकरेण) शत्रुओं को भय
उत्पन्न करने वाले (चक्रेण) सुदर्शन चक्र के द्वारा (सर्वनरेन्द्रचक्रं) समस्त
राजाओं के समूह को (जित्मा) जीतकर (नृप:) चक्रवर्ती हुए और (पुनः)
पश्चात् वीतरागावस्था में जिन्होंने (समाधिचक्रेण) ध्यानरूप चक्र के द्वारा
(दुर्जयमोहचक्रं) कठिनाई से जीतने योग्य मोहनीय कर्म की मूल तथा उत्तर
प्रकृतियों के समूह को (जिगाय) जीता था।
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राज-भ्रिया राजसु राज-सिंहो,
रराज यो राजसुभोग-तन्त्र: ।
आईन्त्य लक्ष्म्या पुन-रात्म-तन्त्रो,
देवा-सुरो-दार-सभे रराज ॥ (78)
अन्वयार्थ : (राजसिह-) राजाओ में श्रेष्ठ तथा (राजसुभोगतन्त्र;) राजाओ
के उत्तम भोगो के अधीन अथवा राजाओ के उत्तम को स्वाधीन रखने वाले
(य:) जो शान्तिनाथ सराग अवस्था में (राजसु) राजाओ के बीच
(राजश्रिया) नौ निधियाँ तथा चौरह रत्नो से युक्त राजलक्ष्मी के द्वारा
(रराज) सुशोभित हुए थे और (पुनः) पश्चात् वीतरागावस्था में ( आत्मतन्त्र:)
आत्माघीन होते हुए (देवासुरोदारसभे) देव और धरेणन्द्रादिकों की महती
सभा में (आहन्त्यलक्ष्म्या) अष्ट प्रातिहार्य रूप बाह्य तथा अनन्तज्ञानादिक
रूप अन्तरग विभूति से (रराज) सुशोभित हुए थे।
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यस्मिन् नभूद्राजनि राज-चक्र,
मुनौ दय्रा-दीध्षिति धर्मचक्रम्।
यूज्ये मुहु: प्राउज्जलि देव-चक्रं,
वध्यानोन्युखे ध्यंसि कृतान्त-चक्रम् ॥ (79)
अन्ययार्थ: (यस्मिन्) जिन शान्तिनाथ भगवान् के (राजनि) राजा होने पर
434. 5कबफ2/पर 77
(राजचक्र) राजाओं का समूह (प्राज्जलि) बद्धाज्जलि (अभूत्) हुआ था,
जिन शान्तिनाथ भगवान् के (मुनौ) मुनि होने पर (दयवादीधिति) दयारूप
किरणों से युक्त (धर्मचक्र) उत्तम क्षमा आदि धर्मों का समूह (प्राज्जलि)
अपने आधीन हुआ था, (पूज्ये) जिन शान्तिनाथ भगवान् के पूज्य होने पर
- समवशरण में स्थित होकर धर्मोपदेशक होने प्रर (देवचक्र) देवों का
समूह (मुहु:) बार-बार (प्राज्जलि) बद्धाज्जलि हुआ था और जिन
शान्तिनाथ भगवान् के (ध्यानोन्मुखे) चतुर्थ शुक्लध्यान के सन््मुख होने पर
(ध्वंसि) क्षय को प्राप्त होता हुआ (कृतान्तचक्र) कर्मों का समूह
(प्रा्जलि) शरण की भिक्षा के लिये बद्धाज्जलि हुआ था।
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करक्षा35 मर
स्व-दोष-शान्त्या-विहितात्म-शान्ति:,
शान्ते बिंधाता शरणं गतानाम्।
भयाद् भव-क्लेश- भयोप-शान्त्यै,
शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्य: ॥ (80)
अन्वयार्थ,- (स्वदोषशान्त्या) अपने रागादि, दोषो की शांति से
(विहितात्मशान्ति:) जिन्हें आत्मशान्ति की प्राप्ति हुई है, जो (शरणगतानां)
शरण मे आये हुए जीवो को (शान्तेविंधिता) शान्ति के करने वाले हैं, जो
(जिन ) कर्मरूप शत्रुओ को जीतने वाले है, ( भगवान्) विशिष्ट ज्ञान से
सहित है तथा (शरण्य.) शरण देने मे निपुण हैं (सः) वे (शान्ति:)
शान्तिनाथ जिनेन्द्र (मे) मेरे (भवक्लेशभयोपशान्त्यै) संसार परिभ्रमण,
क्लेशों और भयों की शान्ति के लिये ( भूयात्) हों।
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7 *
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बसनन््ततिलका छन््द:ः
कुन्थु-प्रभुत्य-खिल-सत्त्व-दयैक-तान:
कुन्थु जिनो ज्वयर - जरा - मरणोप - शान्त्यै ।
त्वं धर्म - चक्र - मिह वर्तयसि सम भूत्यै,
भूत्या पुराक्षिति-पतीएबर-चक्र -पाणिः ॥ (8)
अन्वयार्थ: (कुन्थुप्रभ्रत्यखिलसत्त्वदयैकतान:) कुन्थु आदि समस्त जीवो
यर एक-मुख्य विस्तार करने वाले (कुन्थु, जिनः) कुन्थुनाथ जिनेन्द्र थे।
हे भगवन्। (त्व) आपने (पुरा) पहले (गृहस्थावस्था में ( भूत्ये) राजविभूति
के निमित्त (क्षितिपतीश्वरचक्रपाणि:) राजाधघिराज चक्रवर्ती ( भूत्वा) होकर
पश्चात् (इह) इस ससार मे (ज्वरजरामरणोपशान्त्यै) समस्त रोग, बुढापा
और मरण के विनाश से युक्त (भूत्यै) मोक्ष लक्ष्मी के लिये (धर्म चक्र)
धर्म के समूह को अथवा देवरचित धर्मचक्रमामक अतिशय विशेष को
(वर्तयसि सम) प्रवर्तित किया है।
#7707ए-का38/77078-/77/9-58//74- ८9 787/8-(87727,
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ईशा) क्षार77-८8 पा ीव्व ए/वखब5ा उमा 20597,
€#प्शवव 27फएा३/६70-098057 शद्वौ१-८७४/:४-०87077 (8)
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€डष्लाव60 धाड 207०8ड0 ा था धाधवार53 सवुप्शीए जा ६एा४ए ट॑ए
था! धाट एशाहड ७०।॥एड ० ताट छठ, #एशधापएर गआयबी - उएटी छ25
[.ण6 हदृणाताए पिया उशाशाता३, /शक3 - 0522852८5, 778 - ०० ०४26,
गधबातबा- त6, 07957970797- 0९४0७97॥8 7९८2 7िणा) 06 98795
णएी, #शएबा - ठए 50 7फ€ट, ८/बाा22-22६78277 - एी९€] ०
प्रशा।20एड॥255, 2228 - था एड छणात॑,, ए्ाटवच्ब57 28 + वा) इटा गा
ग्राणाणा, 2#ए7687- ६0 क्ॉद्राव शिट तारा 7 |गेडाया ए गराणेटआ9,
शीपएारड - ्वांटा ॥ (९ 54886 ए दा30वाला। 7९९ तराए्रा009, 772
- श्क्ावश, तंप्रगाए 6 अंब॒2९ एण 3 ॥079श002९, 20760/87- 00 #धा।
0९ ॥70९४४८ क्राशवठ ण ॥78877, &6/70-#805/7क78-८78/24/08/777
- ए7९टणा। 4 साबएब्बषएढा7 दयए (ाएुटाण0)
पृफए कराए ल्य0श्रार2८5 [,00 एप रिहा गरत्रशाता३, ज्री0 एव5
809 8 टाब्बातिबए्द्मात 078 (शाफुश0) 26 4 777फक्षाएवव
0 ४६णापाए 'बिय्मोा।३ उ670673, 7॥07 जटारट ॥6९ 0०79 णा९८ श0
€>९70९0 5 ९०॥ए85570 2॥07 ॥(707॥255 €वृण्थोीए 00 हैणाएाए
€ां था| (0 थी। 008 फशाड एशा26 एस शिाड एणा4, 005 ]0४णि॥8
6 आह्ृतट70९ एए छाटक्या॥आ॥ए20 7370८ (ए्रगए 'थप। 8य।र
दरपाए३ ९ आबढ९ ए 8 70052४0क्0, 40 आरा) (6९ 79]९5९
आला एण फाएशफ, 7फ्0ए 0880 92९९८०णगारट 3 लाबाधबश्थात गा8
(शाफुशएण), भाव (बंद व पा धागटा।]वशार ॥2९ ४४2८ 07एप्रगयी000,
पृप्तठए कद्कतत इस पार वाशतर ज़ाल्श 0 पर2020080९55 70008 (०
छारब6 06 055 0 70504 805.7)9॥ श९९९७०ाआ ॥7णा३ 5९852, ०08
ब86 ॥0व वैद्वात . 5 छणगतव
तृष्णार्चिष: परि - दहन्ति न शान्ति - रासा -
मिष्टेन्द्रियार्थ - विभवैः परि - वृद्धि - रेव।
स्थित्यैव काय - परि - ताप - हरं निमित्त -
मित्यात्मवान् विषयसौख्य-पराडम्मुखो5भूत् ॥ (82)
अन्ययार्थ: (तृष्णार्चिष:) विषयाकाक्षा रूप अग्नि की ज्वालाएँ (परिदहन्ति)
इस जीव को सब ओर से जला रही हैं, (इष्टेन्द्रियार्थविभवै:) इष्ट इन्द्रियो
के विषयों से (आसा) इन विषयाकांक्षा रूप अग्नि की ज्वालाओं की (न
उजागर #पगयप उआगपाह ठीाइए278707 39
शान्ति) शान्ति नहीं होती किन्तु (परिवृद्धिरेव) सब ओर से वृद्धि ही होती
है। यह वृद्धि (स्थित्यैब) इन्द्रिय विषयों के स्वभाव से ही होती है
(निमित्त) निमित्त कारण (कायपरितापहर) मात्र शरीर के सताप को हरने
वाला होता है विषयाकाक्षा रूप अग्निज्वालाओं का उपशमन करने वाला
नहीं होता। हे भगवन्) (इति) यह सब विचार कर ही (आत्मवान्)
जितेन्द्रिय होते हुए आप (विशयसौख्यपराडमुख: ) विषय जन्य सुख से
पराडमुख (अभूत्) हुए है।
(75 छ्वाा-चं3/वराएए 728 5/क्र70-7358,
72775#/276/7787778-7879780॥ 98077 सारव।/-/टाथव
उग्ा0तक्वाए4 (8 72-09477-/8/28-7972772 7777777/9,
गाता बश्बा 7रउस्4फ्5482/47एब-एन737777/70097/ (82)
॥75#7क7057877- 428 0 2 0 [0४8ए0 08टआ९८ट३, 9&77-79/870-
४2९७ 2०णाइंबा9 2075४प7्राए फाड प्रशाह ए०टगाए ॥णा था एट डाठंट३,
7248 - पा ॥0 ए89५, #270/- वृषशाएी 07 804्7 02802, 859777- (25८
विंगाव९$ 0 प्रशण। त्आट5$, 2&/(टपदारबद्रा६8 - दालत56९0 0 (6
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णं€्लंड, कद्लाय7277/77 - लालांए पीला बा 70एणा0, टाएइ - तब्दील,
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बाहां तप: परम - दुश्चरमा - चरंस्त्व, -
माध्यात्मि - कस्य तपस: परिवृह-णार्थम् ।
ध्यानं निरस्थ कलुष - द्वय मुत्तरस्मिन्
ध्यानद्दये ववृतिषेडधति - शयोप-पन्ने ॥ (83)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (त्वम्) आपने (आध्यात्मिकस्थ) अन्तरग (तपस*)
तप को (परिव॒हणार्थम्) वृद्धि के लिये (परमदुश्चर) अत्यन्त कठिन
(बाह्य तप:) अनशनादि बाह्य तप का (आचरन्) आचरण किया था तथा
(कलुषट्टय) आर्त्त-रौद्र रूप दो खोटे (ध्यान) ध्यानों को (निरस्य)
छोडकर आप (अतिशयोपपन्ने) उत्कृष्ट अतिशय से युक्त अथवा अपने
अवान्तर भेदो से सहित (उत्तरस्मिनू) आगे के (ध्यानद्ये) धर्म्यध्यान और
शुक्लध्यान इन दो ध्यानो में (ववृतिषे) स्थिर हुये थे।
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हुत्या स्व - कर्म - कटुक-प्रकृतिश्चतस्त्रो ,
रलत्रयाति - शय - त्तेजसि जात- वीर्य: ।
बश्राजिषि सकल - वेद - विधे बिंनेता,
व्यभ्रे यथा वियति दीप्त-रुचि विंवस्थान् ॥ (84)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (चतस्त्र: स्वकर्मकटुकप्रकृति:) अपने कर्मों की
चार कटुक प्रकृतियो को (रलत्रयातिशयतेजसि) सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की
प्रकृूष्टता रूप अग्नि मे (हुत्वा) होमकर (जातवीर्य:) आप सामर्थ्यवान्
अनन्तवीर्य से युक्त तथा (सकलवेदविधे:) समस्त लोकालोक विषयक
ज्ञान के विधायक परमागम के (विनेता) प्रणेता होकर (तथा) उस तरह
(बश्राजिषे) दैदीप्यमान हुए यथा जिस तरह कि (व्यप्रे) मेघ रहित
(वियति) आकाश में (दीप्तरुचि:) दैदीप्यमान किरणो से युक्त (विवस्वान्)
सूर्य।
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यस्मान् मुनीन्द्र! तत लोक-पिता-महाद्या,
विद्या - विभूति-कांणका-मपि नाप्नुवन्ति ।
तस्माद् भवन्त-मज-प्रप्रति- मेय - मार्या:
स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधिय: स्व-हितैक-ताना: ॥ (85)
अन्वयार्थ: (हे मुनीन््र) हे यतिनाथ! (यस्मात्) चूंकि (लोकपितामहाद्या.)
ब्रह्म आदि लौकिक देवता (तब) आपकी (विद्याविभूतिकणिकामपि)
केवलज्ञानरूप विद्या और समवशरण रूप विभूति के कणमात्र को भी (न
अप्नुवन्ति) नहीं प्राप्त करते हैं (तस्मात्) इसलिए (सुधिय:) उत्तम बुद्धि
के धारक (स्वहितैकताना:) एक आत्महित में निमग्न मोक्ष के अभिलाषी
(आर्या:) गणधारादिदेव (अज) जन्म से रहित, (अप्रतिमेयम्)
मार #एफएस्शए गजब 509787870... 43
अपरिमित-अनंत तथा (स्तुत्य) स्तुति के योग्य ( धवन््त) आपकी (स्तुवन्ति)
स्तुति करते हैं।
उद्धार गगप्रशाप्रदा8 द्वाएव /0:4-276 77792 4]:3,
प्रदीकष-य72ए8-277(4-फ7ब27-74/27078770
(544 204ए47(8-72द44-778/720-772ए74-77व77द/,
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पथ्यावक्तं छउन्द:ः
गुण-स्तोक॑ सदुल्लडः्ध्य, तद-बहुत्व-कथास्तुतिः ।
आनन्त्यात्ते गुणा बक्तु-, मशक्थास्त्वयि सा कथम् ॥(86)
अन्वयार्थ, (सद्) विद्यमान (गुण्स्तोक) अल्प गुणो का (उल्लड्घ्य)
उल्लडूघन कर (तदूबहुत्व कथा) उन गुणों की अधिकता का कथन करन
(स्तुति:) स्तुति कहलाती है परन्तु (आननन््त्यात्) अनन्त होने के कारण
(ते) आपके (गुणा:) गुण (वक्तुमशक्या.) कहने के लिये अशक्य हु
अत, (त्वयि) आपके विषय मे (सा) वह स्तुति (कथ) किस प्रका
सभव है।
हप्पाब-४ बा उ84/729782778, (80-28/0/74-62/7०577//7,
बाएबाए(2//2 पा ए4६/0०, 777॥5#4/43र4)7 58 &4/74977.. (86)
दुष्पाव 58077 - इगवो!] ए्राएफटड, उ84 - ठुफ़ाएा?, :/३78708 -
शा0ंब्राा78 ९ वग्राड, (44 - (08८ शाप्राटड, 2##ए/74 (2074 -
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फ़ाड5८ट, श्र छा #एध, गाबाएदीदवा- एटा8 प्रारधांट ७ 70070255,
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शाणडाा
तथापि ते मुनीन्द्रस्य, यतो नामापि कीर्तितमू ।
पुनाति पुण्य-कीतें नस्, ततो , ब्रूयाम किज्चन ॥ (87)
अन्वयार्थ: [यद्यपि आपके गुणो की स्तुति अशक्य है] (तथापि) तो भी
(पुण्यकीते-) प्रशस्त यशवाणी अथवा ख्याति के धारक तथा (मुनीन्द्रस्य)
गणघरादि मुनियों के स्वामी (ते) आपका (कीर्तित॑) उच्चरित (नामापि)
नाम भी (यत-) चूंकि (नः) हमें (पुनाति) पवित्र करता है (ततः)
इसलिए (किज्चन) कुछ (ब्रूयाम) कहते हैं।
(80/2/2 (2 र?प777दीव574, ॥78/0 24777/2/ /7776977,
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अ्रपाए5, 4 प्रपाएंप [00% फूणा पट श्टाप ८३४ ० प्र साप्िट$ड
लक्ष्मी-विभव-सर्वस्व॑, मुमुक्षोश्यक्र-लाजछनम्
साप्नाज्यं सार्व-भौम॑ ते, जरत्-तुण-मिवाभवत् ॥ (88)
446.. 30807 /0072
अन्वयार्थ : हे भगवन् (लक्ष्मीविभवसर्वस्व) लक्ष्मी की विभूति रूप सर्वस्व
से युक्त तथा (चक्रलाञ्छनं) सुदर्शनचक्र रूप चिंह से सहित (सार्वभौम॑)
समस्त पृथिवी सम्बन्धी जो (ते) आपका (साम्राज्य) साम्राज्य था वह
(मुमुक्षो.) मोक्ष के इच्छुक होने पर आपके लिये (जरत्तणमित्र) जीर्ण तृण
के समान (अभवत्) हो गया था।
_/्रफा-यशरवाय-उद्बापवडादकाए, 7777770/5705704/04 /87720797748777,
डबागाबाउकाए उद्घा३-शदाएएाबा /ठ /कब्ाबा-एउप्र॥-यग4227274/.. (88)
484577/ - ० ॥क्ु ्वाटकरचा, 72/बवदछ - ऊ्रॉटफआव0, उद्दारबडशवाए -
९ा060ए७2० एाए। ४॥, शपएए45207 - एश॥0ए एटायह 4९शा0०5 ०
बईाताए३2 प0ए:8048 0 इद्यपबाफा, टव74 (722477 - ०९779
पीट पराडाशा8 ए 6 तारा 5ए00988४॥9 (व, 54777977777 -
ड्रग, 542078-008077977 - ह.ार40 07९ शी त९€ एणा06, (८ -
प्रफए ता 7] रट, /छह/2779-734८ ए 977९0 855, 7४४- 7९, 2//द्वादद/
+#€ट्गा॥९ प्रिप्रोंट ण एडटाी255 00 ८६
07,06, $क्रा 54 जाहशावाब, जा 92८८णाएए (८४005 एण बाप?
प/00502, [फ्ठ0 एवए८ एफ एप (त्र28ू00त जराति07६ फथशाणा३९ 35 भी ॥
अशर 35 एण्गाग[९55 8६ 8 0]862८ ए 97९१ 2955 [79 ॥7780070, श३5
597९80 की 0ए९/ ॥९ छणा4, ॥ ए5 ९00ए24 जात ९ ऋ्रोटात0
एविग (4/चााय काव ॥ 9७छ6 6 84 0 ए€ तरशाह 5प्रतब्वाशाद्वा
(याबातव
तब रूपस्थ सौन्दर्य, दृष्ट्वा तृप्ति - मनापिवान्।
द्यक्ष: शक्रः सहस्त्राक्षो, बभूब बहु-विस्मय: ॥ (89)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (तव) आपके (रूपस्य) शरीर सम्बन्धी रूप की
(सौन्दर्यम्) सुन्दरता को (दृष्ट्बा) देखकर (तृप्तिम) सन््तोष को (अनापिवान्)
प्राप्त ने होने बाला (द्यक्ष:) दो नेत्रों का धारक (शक्र:) इन्ध (बहुविस्मय:)
बहुत भारी आश्चर्य से युक्त (सहस्त्राक्ष)) एक हजार नेत्रों का धारक
(बभूव) हुआ था।
बीए 47 /फ्रब डकार. 47
सिय उणएगहा॒ब उद्घाएए:बा.ब27, 2548 77277क्व/्रापव7,
दराब/॥/5/87 5497 52/950734570 68897#799 848/0-57)747.
(89)
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डद#2502/57& 0ा 0९ 07८ एशत 8 0॥0078870 ८ए८5
मोह-रूपो रिपु: पाप:, कवाय-भट-साधन* ।
दृष्टि-संपदु-पेक्षा 3स्त्रैस्वया धीर! पराजित: ॥ (90)
अन्ययार्थ, (हे धीर) परीषहादि से जिनका चित्त कभी क्षोभ को प्राप्त नहीं
होता ऐसे हे अर जिनेन्द्र! (त्वया) आप ने (पाप:ः) पाप रूप तथा
(कषायभटसाधन:) कषायरूप योद्धाओ की सेना से सहित (भोहरूपो
रिपु:) मोहनीय कर्मरूपी शत्रु को (दृष्टिसंपदुपेक्षास्त्रै)) सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप शस्त्रों के द्वारा (पराजित:) पराजित
किया है।
मा0/ब्रय्ए्फएट 72एस् 29727, ८578-09 8/8 580474:7,
बीएड दवडबापब47->2574/250कहवएब एड 74777 (90)
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प50 क्राहुटा, 9455075, टॉ2
कन्दर्पस्योद्धरो दर्पस्, त्रैलोक्य-विजयाउर्जित: ।
ह्ेपयामास त॑ थीरे, त्वयि प्रतिहतोदय: ॥ (9)
अन्वयार्थ: (त्रैलोक्थ) तीनों लोकों की (विजयार्जित:) विजय से उपार्जित
(कदर्पस्थ) कामदेव के (उद्धर:) बहुत भारी (दर्प:) गर्व ने (धीरे) धीर
वीर (त्वयि) आपके विषय में (प्रतिहतोदय:) खण्डित प्रसर हो (तं)
कामदेव को (ड्रेपयामास) लज्जित किया था।
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ए०णावुफटाएत का #ष 5९525, ॥08४ 870 छ>45ञणा पर पश्ञ्ला
आयत्यां च तदात्ये च, दुःख-योनि दुरुत्तरा।
तृष्णा-नदी त्वयोत्तीर्णा, विद्या-नावा विक्तया ॥ (92)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (आयत्या च तदात्ये च) जो परलोक तथा इस लोक
दोनो ही जगह (दुःखयोनि:) दुःखो की उत्पत्ति का कारण है तथा
(दुरुत्त) जिसका पार करना अत्यन्त कठिन है ऐसी (तृष्णानदी) तृष्णारूपी
नदी (त्वया) आपने (विविक्तया) बीतराग और (विद्यानावा) विद्या-सम्यग्ज्ञान
रूपी नौका के द्वारा (उत्तीर्ण) पार की है।
बचाव 28 #बदंब/?22 28, 70/782 -7077 द्पए/ए//4/व,
प्रएद्ाब-खबदा (ए्ब॒20/7772, शर्वश्ब-शबाद्य-रास्//478 (92)
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ग्राइशा९३$, ्एप/घ/2- 75 राशाटोए वाट्ा0 स055, ध्ाडीजर उत्ददी
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एतएजांल्प ६2
अन्तकः क्रन्दको नृणां, जन्म-ज्वर-सख- सदा ।
त्वा-मन्त-कान्तक प्राप्य, व्यावृत्तः काम-कारत ॥ (93)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (जन्मज्वरसख -) पुनर्जन्म तथा ज्वर आदि रोगो का
मित्र और (सदा) हमेशा (नृणा) मनुष्यो का (क्रन्दक ) रुलाने वाला
(अन्तक-) यम (अन्तकान्तक) यम का अन्त करने वाले (त्वाम्) आपको
(प्राप्य) प्राप्तकर (कामकारत ) अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्ति से (व्यावृत्त )
उपरत हुआ है।
ब7/4/87 #7ब्न0449/0 7ा777277, /दाय?77(-प्ा4-59/2797 522
#दब-477/4-#27/9/477 फाबए72, एाद्बाय7/9/7 697779-:474८27. (93)
ब्राएब/48- था) एव], पाट 204 0 वंटव, //8707062/7- ए्राधाएाए
पीशा] 870 गाब्याता)2 पीला) लफ, गायााबा77- 6 ए९5फॉट, /गाएा॥ 2 स्क्ा4-
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ग्रांप्रलां5, उक्दं। - बजबए$, (4877- 407 9 0४९९, ॥7(वर्वा/49/4/77
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गा कहा था4 (९ एए26 ए[ाएिर
7 47ग्र /४३ उद्लाद्ा॥77.. ॥5]
भूषा-वेषा-युध-त्यागि, विद्या-दम-दया-परम् ।
रूप-मेव तवाचष्टे, धीर! दोष-विनिग्नहम् ॥ (94)
अन्वयार्थ: (घीर) हे धीर वीर अरनाथ।! (भूषावेषायुधत्यागि) आभूषणों,
वेषों तथा शस्त्र का त्याग करने वाला तथा (विद्यादमदयापरम्) ज्ञान इन्द्रिय
दमन और दया मे तत्पर (तव) आपका (रूपमेव) रूप ही (दोषविनिग्रहं)
रागादि दोषो के अभाव को (आचबष्टे) कहता है।
2/075/92-725/8-77 4774-67 407, 74:8-297779-ठ72-घावाप
गपए॥चयाउटाय वराध22857/2 27#7727 /0573-/772872/29777 (94)
छाएडब - णाशाहाडईड, ॥2578- ज॑एपाट$, प्422- छ#ट्कफ[णा5, (0
- णा€ ज्ञ0 38 66४04 ०, प्रदीद + ९४एटब्रा।0णा 0 एणधषपा 0
][70जणज़ाल्व2९, 29728 - 200700 0ए९/ इशा३2$, कक - ९०छए45567
गात॑ (कावार$ड, छक्कावा - कि 0, #ए2877- एिए, 2५8 - पी€ फ्टप,
दिए - परगार ता 7, 2८95//2- 35 दा परठाटब07 ०, 2/772- 0,
परा€ शाल्थ $50ंशातर, एगाशा भाएं छाइएट 7.00७ 5॥7 28 7उग]टातवा व,
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() 6 ट्रावएट, 50077] क्षात छाबट, जय 24 था गाथा, 7फत्र
एशए णिाा 8९४०० छा 0काभ्ाशाएं, शता८९8 0 7९३एएणाड, बम
00929 ९0९7055८0 ॥ एचप्रा5पा 0 0॥0ए०622०, 5ए0]7880॥7३ थीं इटाइटड
20 पा 0 ९07फ॥४३४णा क्ााएं (व9९55, ॥5 गा ॥5टॉ| क्षा गताटवंण
छा ॥€ ४०४०९ ए थी ९४४ एण बाबणाग्राटा कराए ॥99 रंट छा पार
समन््त- तोउद्भ- भासां ते, परि-वेषेण भूयसा ।
तमा बाहा-मपाकीर्ण-मध्यात्म ध्यान-तेजसा ॥ (95)
अन्ययार्थ: हे“भगवन्! (समन्ततः) सब और फैलने वाले (ते) आपके
(अद्भभासां) शरीर सम्बन्धी प्रभाओ के (भूयसा) विशाल (परिवेषेण)
मण्डल के द्वारा (बाह्य) बाह्य (तम:) अन्धकार (अपाकीर्णम्) नष्ट हुआ
है और (ध्यानतेजसा) ध्यान रूप तेज के द्वारा (अध्यात्म) ज्ञानावरणादि
कर्मरूप अन्तरंग का अन्धकार (अपाकीर्णम्) नष्ट हुआ है।
]52.. $एकक्कब7ीए 5774
डबाए474-07-का82-2745477 2, फक्म7-72६72708 27758
(87770 88/78-7747#/0/क्-ााबएद्र।स्राय धी[एब22-/ट/2528 (95)
दबायक्ा/2(87 - पफ्ाटबवाडह भी उएप्रात, काहब - ०097, 25877 -
उ्चतता॥॥0९ शगाएाए रिणा, #2- पट 0 77, >श7/6/7#078- ॥40
झच77णाग्रताधढ फट, 8ए858 - एछा2, $97९7007005, (87778 -
(ग्गांता2ट55, 98477 - ९ए(ट्याश 70 ०ए॑ंटा, बएबहाएगब7! - 4435 फटेटा
व९४००0फए८व, ब८/एबत7777 - पटायडा, 00गप्राट्टाट0 शञाएी 50पता 0
कण, 47878 - ए ॥20/स्4707, /&858 - थीपिंट्रशा९८
छ0व॑च्र छा 4 7्रीक्याटाब जा शॉश्ाग्राह &278/ 77479, >2९200725
शीपिएटाए, शात एटागतवा॥आ॥०2 राततवाए परटाटीए0पराएटा॥0ए९5 पीट तट्था० ए
वंबा:वट55 शत क्40 बाध्रयाार #टाख। 77979, 7ए ररशए6 ण 6९९ए 764
ग्राशा5$ट चार्वात्रा0ता, थी पक्षाप॥्-श्ा744/2 (77785 2॥2 8९४707920 870
पट एरांशाओों १87700९55 एए॥0470९ व84%फ779८क्लाड ४१6 ह९ 30०7 धां्षा5
घाट पराबहाओएट2ट72€ छा एप्रताण सलल्ह प्रा धा$ 009 20ोव्वा प्र
श्थाधभध्ा्रताबता4, 0९४टाएगड पर इथारट जाशाणारलाजा 58५5
0व7,04, भी फ९€ छांशाओं 6भ06९55 93$ ०८शा 0९४70720 9५ (6
हब्ता॥30९ टाभाधाए ॥"०॥ 779 ४0ए भाव 6 व0 5प्राएफ्रावाए?
गं, 800 ९ काटाबा तंगाताट$इ5 ए पीट इ50ण सटबाटत 0ए धधबाए4-
प्रदाधााबध/2 ६477725, 35 द्रउ0 02शा १|८४70726 ०५ धा€ टीपाटुट2८
श्धाटा॥0९6 ४५ गए 6९९७ प्राशाइट गल्वाक्षाणा पाठरणगिटल वा।
दंश्राता९55, छापंशा।नओं 88 एली 85 जांशाबनों ॥88 09९९॥ 8९८४70ए९६ एप
पुफ्ह्ट
सर्वज्ञ-ज्योति-षोद- भूतस्, तावको महिमोदय ।
क॑ न कर्यात् प्रणम्नं ते, सत्त्वं नाथ! सचेतनम् ॥ (96)
अन्वयार्थ: (नाथ) हे अरनाथ! (सर्वज्ञज्योतिषा) समस्त पदार्थों को जानने
चाली केवलज्ञान रूपी ज्योति से (उद्भूत.) उत्पन्न हुआ (तावक:)
आपकी (महिमोदय:) महिमा का उत्कर्ष (क) किस (सचेतन) गुणदोष
के विचार में चतुर (सत्त्वं) प्राणी को (प्रणम्रं) नप्नीभूत (न कुर्यात्) नही
कर देता है? अर्थात् सब को कर देता है।
दकमात 4फच्च गई ठील्ादााछा7.. 53
उद्घधबा22-00-570व4-27ए/45, (६४2/0 फादाीए06/द7
ईन्चाए ख8 #पउदद (/कएकाएया 42 54्वरा 72048/ 5202/#774877 (96)
इकाध्या78 - ॥37ग्राए् 80)720726 णए थी इण्फशंग्रा7028, 0 गराताइटास्ता,
#छाक् 77770, 00574 - गरब्रश्राविट्शाए्ट, ए2807/8/ - एएएआ] 0ए.
रण, ण प्टत0 फ्राणाड्री, (82/37- 7फ्रारट झ 7ए, का2/770442)47
- शास्था९55 ० चड़९ एी 8079, #६77- एी॥0, 28 - 00 #प्र/7:8/- ॥5
काल, छाग्पबाा/ब7 - वरपरफ्राश्त त इफवएटव, दु- 6९, उदार -
ए९एल गराधा, 22200 - 00 7,.00 58 278 ४), 5422/8772077- ९/॥३८
भा३१ ताइल्स्लं
पड छ0८8 0९४27४८2४ 02८ एर॥8पएगटशा०८ एण पर ६2767 /74772
]ठजा€त2९ अगव,णव 5त7 404 0 उशातात
077,00 5गा १ पिवीा जालाता, जशीशर ॥$5 पाक लटरटाट5
॥शा, जञी0 5 700 0शशबणश्टव 770 ॥णशधात् 797 06 पाब्शास्0शा९८
णए 77१५ €४३६९८०१ 209 9०0ता 0० ए प्ा€ &278/ 772772 ॥079९0 9९
9055८55८0 0५ ॥प्८८
तब वा- गमृतं श्रीमत्, सर्व-भाषा-स्वभावकम् ।
प्रीणयत्यमृतं यद्-बत्, प्राणिनो व्यापि संसदि ॥ (97)
अन्वयार्थ- हे भगवन्! (श्रीमत्) पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन
करने रूप लक्ष्मी सहित, (सर्वभाषास्वभावकम्) समस्त भाषाओं रूप
परिणमन करने वाले स्वभाव से युक्त तथा (संसदि) समवशरण सभा मे
(व्याषि) व्याप्त होने वाला (तव) आपका (वागमृत) वचन रूप अमृत
(अमृत यद्दत्) अमृत के समान (प्राणिन:) प्राणियो को (प्रीणयति) संतुष्ट
'करता है।
क्बाएव ए8-छब्ाएपपर(ाए उ/गरय/द्व, 5278-2/45/-540/7 69777
धान्बतकब्रायाएतदिाए एन्द॑-2486 गाना 70 प07 <752०7 (97)
सिख - गिर, ॥267777व77- प्र८्टॉदा ॥९ ए0०6९ ० फऋलएला, बाबर
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त€ छझठ5706
अनेकान्तात्म-दृष्टिस्ते, सती शून्यों विपर्यय: ।
ततः सर्व मृषोक्तं स्थात्, तदयुक्तं स्वधघाततः ॥ (98)
अन्वयार्थ: हे भगवन्! (ते) आपकी (अनेकान्तात्मदृष्टि:) अनेकान्त रूप
दृष्टि (सती) सत्यार्थ है उससे (विपर्यय) विपरीत एकान्तमत (शून्य )
शून्यरूप असत् है (तत-) इसलिए (तदयुक्त) उस अनेकान्त दृष्टि से
रहित (सर्व) सब (उक्तम्) कथन (स्वघातत:) स्वघातक होने से (मृषा)
मिथ्यारूप है। अथवा (ततः:) एकान्तमत के आश्रय से (उक्तम्) कहा
हुआ (सर्व) समस्त वस्तुस्वरूप (मृषा) असत्य है तथा (स्वघातत-) स्व
घातक होने से (तद्) वह (अयुक्त) अनुचित है।
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ये परस्खलितोन् - निद्रा:, स्वदोषेभ-निमीलिन: ।
तपस्थविनस्ते कि कुर्यु, -रपात्र त्थन्मतश्मिय: ॥ (99)
336 58) -77007 70079
अन्ययार्थ: (ये) जो एकान्तवादी (परस्खलितोनू - निद्रा:) पर -
अनेकान्त मत में स्खलित-विरोध आदि दोषों के देखने में उन्निद्र - जागृत
रहते हैं और (स्वदोषेभनिमीलिन:) स्व - अपने सदेकान्त आदि एकान्त मे
दोष - स्वघातत्व आदि दोषों के विधय मे गज निमीलन से युक्त हैं अर्थात्
उन्हे देखते हुए भी नहीं देखते है (ते) वे (तपस्विन:) तपस्वी (कि
कुर्य:) क्या करें - स्वपक्ष सिद्धि और पर पक्ष के निराकरण में वे असमर्थ
है तथा (त्वन्मतश्रिय:) आपके मत रूपी लक्ष्मी के (अपात्र) अपात्र हैं।
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त्वद्विष: स्वहनो बालास्, तत्त्वा-वक्तव्यतांश्रिता- ॥ (00)
अन्वयार्थ: (ते) वे एकान्तवादी (त) उस पू्वोक्त (स्वधातिन) स्वघाती
दोष को (शमीकृतु) शमन करने के लिये (अनीश्वरा:) असमर्थ हैं,
(त्वद्विष:) आप - अनेकान्तवादी से दोष रखते हैं, (स्वहन:) अपने
आपका घात करने वाले हैं, (बाला:) यथा वद्वस्तुस्वरूप से अनभिज्ञ हैं
अत 4 जाए उफाबव7?. 357
और इसलिए (तत्त्वावक्तव्यतां श्रिता) तत्त्त्की अबक्तब्यता का आश्रय
लेते है।
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सदेक-नित्य-वक्तव्यास्, तद्ठिपक्षाश्य ये नया: ।
सर्वथेति प्रदुष्यन्ति, पुष्यन्ति स्या-दितीह ते ॥ (0)
अन्ययार्थ : (सदेकनित्यवक्तव्या,) सत्, एक, नित्य, वक्तव्य (च) और
(तद्ठिपक्षा:) इनसे विपरीत असत्, अनेक, अनित्य, अवक्तव्य (ये नया*)
ये जो नय हैं (ते) वे (इह) इस जगत् मे (सर्वथा इति) सर्वथा रूप से
(प्रदुष्यन्ति) वस्तु तत्त्व को अत्यधिक विकृत करते है - सदोष बनाते हे
और (स्यात् इति) कथज्चितू रूप से वस्तु तत्त्व को (पुष्यन्ति) पुष्ट करते
है।
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85 पारा, फप्वत गरए7-एट्जाक्राटाई 5 ॥स्0९8ट20080९, ४/५/४ए६४ ४३४
कदाडजा5 06 पट परढापार छा 8 5ए7श्राएट 3 एर! ०णाह्रतटाटत राट्ण
00 हट 088 ण &78/70ट३92 2 20ाग्तपवों इशाइट (0 4 टशाॉसाा
०णांटडा), 70००१ वंटकाल कर 07८ गरढांपार ् पट 3प्रडा॥02 ॥707८
०007/टटाए
दमा जात गम मास 59
पफल बफ0एट 8 प्रि/ह 0क्रांक्ात९6 88 9209
पाशए ०णी2 वक्ब्रालः 8 टवा।66 8 56जणा5कुां # 4कक्ाश ३05लं)र7टड5
2६ 8 आा0छ9त0९८ पाह्रॉट, ब00 300शंतञट३ 7/॥क्काशा( बात 507लापाटड
628077कंक-८९ 28056 ०णाएश्यए 00 0७, 507श९7725 ॥९ ८४५ ह एतार्कयं 0
प्राण 07 7ण-कछराशक्षादाा 0 70 एछाकधाए ठ€इलफ्रक्रांट & एाएा
डंद्राटालाड ए 6 (क४ांट' 2छाट55 8 0७णाल््ल॒ए 800 ॥ पड ट्णाल्का छ
प्ट/26 385 उप्र, [0 9८ तट१णा४ं780ए८ 0 फाड़ ॥€थ 32 ० (९८
इफडॉत्राए2, पीला णा 3220ए7 छा ॥5 छऐशाए 0रणानाशपराटवारट ए पट
०"770०थआराॉ2 7०ुशारड छाग्राणए 79 मिट इप्/्डांड॥एट, छए0णंतद ४डांएणा ८
शाप एाजपार, 0 प्राषऑ:९ 7( 8एएटबा विप्राए पराटाशगर, पर एणाल्ट
प्राई280 0 फशाए ०ण7९ट॑ं जए0फ70 ए709ए९ (0 9€ 4$2 /76 ज़राल! ९52
डॉंाटाए0टाव5, 27075 4८ ८ )्रध/एट 0 ८ $ए४800९ 0० 0९ 0&85
ण इजब। एरताटबणा2 2 एणा९फएक्चं ९0$शा०्ट (गत टलॉशा 2050 ०
एण्ू%ुणभाट एकफृशप८25 ४50, 72५ छ०णै०१ 8९८एाटा 072 बात 00फऑशट प्रधाएर
० (0९ 5प्रडांद्वा0८
सर्वथा नियम - त्यागी, यथादृष्ट - मपेक्षक: ।
स्याच्छब्दस्तावके न्याये, नान्येषा-मात्म-विद्विषाम् ॥ (02)
अन्वयार्थ : (सर्वधानियमत्यागी) सर्वथा रूप नियम का त्याग करने बाला
तथा (यथादृष्टमपेक्षक:) यथादृष्टप्रमाणसिद्ध वस्तु स्वरूप की अपेक्षा
रखने वाला (स्याच्छब्द:) स्यात् शब्द (तावके न्याये) आपके न्याय में है
(आत्मविद्विषाम) अपने आपके बैरी (अन्येषा) अन्य एकान्तवादियों के
न्याय मे (न) नहीं है।
0774 20872 6८267, 3/8६72८72578-772/22/6/79427
हाबट27409435/79६2 77ब्च72747772544-77407779-7:ीय5797. (02)
इबरा28/78 - भ्रंजव95, खाबाए -+ तट एा तगराए तार 0ता, त्बड्ा -
॥रट्डुभारएट, (2700) )-8८742 - 35 एश ॥१ए७ए९क्राशा02 एा ॥९ डर/४शंभ्रा0८,
धरंपिडाईढाए - 04520 0 ट्शतला छाए, ॥292/5#2/27 - शब्गग्रद्गाह
प€ 7टटिशाट९ 0, 5ब८८४०९०४ - ९ जएछण0 52/ प९ग्यए एप 8
ण्शांत्रा] 0गाटड, (्वा॥/2- ॥ाए, या? - धजाएइंड ॥ 0000९, 28 -
090 ॥5 70, 47765/28/777- . 0ज70ट्ज एज 096 जटा$, टंप्क्शां॥ए8०025,
8678-85 जौ 3५ फिशा' 0जा, शदीयर5द0277- 0 बार 7फर लाशा।?ड
60.. $'एढब87४ए 6/002
(04,90, जगा 47 गराल्ातक्षाब, प0९ ०0णा०थ्फां दबा ॥टबाधाट प 8
ल्शाब्रात्र जाट”, 85 89905826 (0 प€ ०णाटकुप “शए१५४ 0 07५
प्रा जार एछिा7", टाएा€0प्रश्ुप्र 985८0 0 प्राट फरापंणाए “35 शबएट
80 त९जिा(एटाए फज़ातर24", >ाडड गाए थ पाए फ्राधोपाए उरला 0प्ाट
शांप्ावएव07९5, फएटारट 700 0659९0 जांत्र 02 ए) एा 53/ 7725८
रॉप्करांबएबता28 जार जुए०5ट6 0907 थाए0 इशधन्चिशट्वागाए
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पृश्रर ्रणव 509 गाटका!।ारए "पा 8 टशाॉंडा) 2070507", ॥९88028 ६९
ऐपरांट ण त९३४टस्7णाए४ था कारटल गा “0 णा९€" छिग्रा, $प्टी। 85, धा5
जाला 07१ ाल्यां 07 0 फ़शागवाला( 0 गाए एक्थातप 8९5ट27०४०८,
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अने-कान्तो5प्यनेकान्त:, प्रमाण-नय- साधन: ।
अनेकान्तः प्रमाणात् ते, तदेकान्तो3र्पितान्नयात् ॥ (03)
अन्ययार्थ: हे भगवन्! (ते) आपके मत में (अनेकान्तोषपि) अनेकान्त भी
(प्रमाणनयसाधन*) प्रमाण और नय रूप साधनों से युक्त होने के कारण
(अनेकान्तः) अनेकान्त स्वरूप है। (प्रमाणात्) प्रमाण की अपेक्षा ( अनेकान्त:)
अनेकान्त स्वरूप है और (अर्पितान् नयात्) विवक्षित नय से (तदेकान्तः)
अनेकान्त मे एकान्त स्वरूप है।
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०णाफञा92$ ० ७४० 792८875, 2028709/- प्राणाप-व०ल८0, छएब्रएना4/
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355प९5 & शाए्ा/ट चविल्श शत्रात0ट जिएा
इति निरूपम-युक्क्त-शासन:,
प्रिय-हित-योग-गुणानु-शासन: ।
अरजिन! दम-तीर्थ-नायकस्
त्वयमिव सतां प्रति-बोधनायकः ४ (304)
अन्ययार्थ : (इति) इस तरह (अरजिन) हे अर जिनेन्द्र! आप
(निरूपप्रयुक्तशासन:) उपमा रहित-प्रत्यक्षादि प्रमाणों से युक्त शासन से
सहित हैं, (प्रियहितयोगगुणानुशासनः) सुखदायक तथा फलकाल में
हितकारक, मन, वचन, काय के प्रशस्त व्यापार रूप योग और सम्यर्दर्शनादि
गुणों का उपदेश देने वाले हैं तथा (दमतीर्थनायक:) इन्द्रिय विजय को
]62. 7880 47009
सूचित करने बाले आगम के नायक हैं। हे नाथ! (त्वमिव) आपके समान
(सतां प्रतिबोधनाय) विद्वल्जनो को प्रतिबोध देने के लिए (अन्य: कः)
दूसरा कौन है? कोई नहीं है।
7६ गााप्रए477-77/42-574587727,
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प्री: रालणए 07९ 5९४52८58, 769/8/7 - 4680९ 0, (क्ष्याप्. - 0९
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बाद 9प्रशट्बरा॥, 270 8 97282007 0 57८7८ प्रशप्रा2$ 0 द्वाएपव(-
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एजाए्रणाएए प्र इथाइ९४ ॥गए5 07,00, शञा0 श॒षट 07 22८, 60प70
ए९ 3 एशाटाः 36ए03ट7 प्रा कशल्थात३ 37 2छब्येप्टाएड रण पट $था था ९
[एद्काततट6 5002८5
मति-गुण-विभवानु-रूपतस्,
त्वयि वरदा-गम-दृष्टि-रूपत* ।
गुण-कुश-मपि किज्वनोदितं,
मम भयताद दुरिता-सनोदितम् ॥ (05)
ऊपर 4क्ब जाय उ्वाद्वप477... 63
अन्वयार्थ: (हे वरद) हे बर को देने वाले अर जिनेन्द्र। मैंने
(मतिगुणविभवानुरूपत,) अपनी बुद्धि के गुणो की सामर्थ्य के अनुरूप
तथा (आगमदृष्टिरूपत:) आगम से प्राप्त हुई दृष्टि के अनुसार (त्वयि)
आपके विषय मे (गुणकृशमपि) आपके गुणों का जो कुछ थोड़ा सा
(उदित) वर्णन किया है वह वर्णन (मम) मेरे (दुरितासनोदितम्) फापों के
नष्ट करने मे समर्थ ( भवतात्) होवे।
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गागध्रध-दएाब-ाय2/वाद्ाएप-77/22/25,
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श्रीछन्द: अथवा सान्द्रपद छन्द:
अस्य महर्षे; सकल-पदार्थ-
प्रत्यवबोध: समजनि साक्षात् ।
सामर-मर्त्य॑जग-दपि सर्व,
प्राउ्जलि भूत्वा प्रणिपतति सम ॥ (06)
अन्वयार्थ: (यस्य महर्षे:) जिन महर्षि के (सकलपदार्थ-प्रत्यवबोध:)
जीवादि समस्त पदार्थों को सब ओर से अशेषविशेषता के साथ जानने वाला
केवल ज्ञान (साक्षात्) स्पष्ट रूप से (समजनि) उत्पन्न हुआ और इसलिए
जिन्हे (सामरमत्य) देवो तथा मनुष्यो से सहित (सर्वमपि जगत) सभी
ससार ने (प्राज्जलि भूत्वा) बद्धाज्जलि होकर (प्रणिपतति सम) प्रणाम
किया। उन मल्लिनाथ जिनेन्द्र को शरण को प्राप्त हुआ हूँ।
उग्छब कावबाउस्2ए 536479-9447477728-
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[.णए0 9500 %ड0 उडी) उफ्लशाएाव
यस्यथ अर मूर्ति: कनक-मयीव,
स्वस्फ्र-दाभा-कृत-परिवेषा ।
वा-गपि तत्त्यं कथयितु-कामा,
स्थात्पद-पूर्वा रमयति साधून् ॥ (07)
अन्वयार्थ: (कनकमयीव) सुवर्ण से निर्मित के समान
(स्वस्फुरदाभाकृतपरिवेषा) अपनी दैदीप्यमान आभा से समस्त शरीर में
व्याप्त भामण्डल को करने वाली (यस्य मूर्ति) जिनकी मूर्ति शरीराकृति
(च) और (तत्त्व कथयितुकामा) वस्तु स्वरूप को प्रकाशित करने की
इच्छुक एवं (स्यात्पूर्वा) स्थात्पद से सहित (यस्य) जिनकी (वागपि)
वाणी भी (साधून्) भव्य जीबो को (रमयति) प्रसन्न करती है। उन
मल्लिनाथ जिनेन्र की शरण को प्राप्त हुआ हूँ।
उबडाय दा मापाएस् ६ा44-ग4ग
श्बक्तएब-द4/7 4 अधपयप्ा-तबा77259
बघ27 (्रद्ीए277 &69760-27778,
अकाग[एबबब-एपलदव 7माप27ब 32०7 (07)
उब58 - शां॥05९, ट8 - बात, 77777 - ए9०तए४ ण ज़ाएडग्ंट्शं 0,
ध्यहबमाा॥ - घा॥62 5 ण॑ 2जत, उआब - पीट फैडा, आफ - शॉड,
अण््रपा॥४- फरक्रांसलटत, 2224 - छडाार, प्रशाताणाड 0, 77 -
लर्शाव्त, क््ाहास्टडाब - थी एएणचा। 7, (ए57४ - जी।08८), "दल -
66.. 89777 $/007
ए00९ 6 0०05६ (00, (26777 - ॥टब्लों ॥॥ए7९ ए ८ 3फ्रैश॥70८,
ईबारब.76प - ६0 त९४टाफैट छा शफ़ोब्रा॥, इब्ब778 + ।णाहाड़ (0 0
एटशाएणाऊ ए, 52६24 4 - ९ #एणजवते 57ढ/ प्राट््ाणाए व 8 प्रात
0०7(८९><7१, 2फ्राएब - ८णापशाएड़ एण श्वुपफ़०त जाप, 7बााबुएडत0 -
शैट्ब्रआआह क्0, 587007- 7०6 एशाहएुड
[04 8 शथा शा उआाशाताब ॥80 8 90007 शार्टशफकृ्टव पर 8
9१०0 रण 2०० ॥९ ]0श॥72८, ऐ5 ज्ञा5८ ए005, जारी वराएएतली क्र
ग्राटबागाह "पा ब €शॉबरा) 2णाटए? कशायडई 0 ःफ़ोंग्ा पा पएट
व्रशापार ० ह॥९ ४प0४200९, एटारट ॥णा0फ7८6 0५ ४2 ज़ाइट थ॥0 प्रीट
706 | स्टाफ )रणफ्राए 5९टॉ८ आलांट गा ऐपल $धगट 7.00 आग कैश
िद्ात साशावा8
यस्य पुरस्ताद् विगलित-भाना,
न प्रतितीर्थ्या भुवि बिवदन्ले ।
भू-रपि रम्या प्रति-पद-मासीज्,
जात-विकोशाम्बुज-मृदु-हासा ॥ (08)
अन्ययार्थ, (यस्य) जिनके (पुरस्तात्) आगे (विगलितमाना ) गलित मान
हुए (प्रतितीर्थ्या)) एकान्तवादी जन (भुवि) पृथ्वी पर (न विददन्ते)
विवाद नहीं करते थे और जिनके विहार के समय (भूरपि) पृथ्वी भी
(प्रतिफदं) डगडग पर (जातविकोशाम्बुजमृदहासा) विकसित कमलो से
कोमल हास को धारण करती हुई (रम्या) मनोहर (आसीत्) हुई थी। उन
मल्लिनाथ जिनेन्द्र की शरण को प्राप्त हुआ हूँ।)
(१5४8 घप्बडब<6 पछ07 77070,
गब एाब2777077 #फाय प्राएब2437/2
शीएनबए उक्घय7व 2790-74274-77447॥,
०(2-६057#77/2प/0-क्राप427-१४5०.. (08)
2598 - चक्रॉश052, /घधा8०(२८-॥0 707( 0९ 07 एास्डलाए९ 0, आा&9/768-
ग्रबपतब् - 5 बा फ़ैशा छा0९, 28 - 00 700, एग्परशाएाए -
बाली अऋर्बांड, ताट ट80(8ए४0025, 200ए४7- 00 सदा, उादर 87072 -
बाएफएड, छ्रडाबता - €फछत ऐट टच) (00, बब्ग2पब >+ धाएउटागड्ीए
ए०९४४परषि, 7-#र्दंका - वा स्टार डंट 2४ (6 पराश€ छा ज्रीक्056
काउ २427 2४७४१ 772३ 5/बा्प्277.. 67
परबश्श, 25/8 - >९एक्रा52 0 ]0ण८८९, 78/8-77£057497700/8 - ६४एए
छ0ऊआाल्त 4000565, कयप्र८7- इच्च८टां, 24858 - शाएंट
एफ 59९९० ण' 5॥7थना। ३३४ उाध्यता॥ टाल 39९) ९ए0ाक्ताट00
प्रढ्ां ९एशा 8 बाल परशभ$, 02 शेत्वा।॥४0725, एलट वराफुली26 0
केणावता पाटाए ए62 थातत उट्डाड 2एराएटावाडु पट ए7ट४४5णाए285 एफ
खिजक्मात 99 प्रंगा #आाव 85 छत िवाी। 'द्या) उराालादा4 वरटाट6,
ग९३)॥ छ००जाड 00528 क्रागाह़ एए भ ९४स। अल गाबोणाह फट रत
लालाएईए ए९१ए्धपिं | एटाए परप्रश्तफात 5८८ 72082 ए परी इद्घा१८
[.ण06 शाए शा रथ उग्राशातान
यस्य समनन््ताज् जिन-शिशि-रांशोः,
शिव्यक-साथु-ग्रह-जिभवो 5 भूत् ।
तीर्थ-मपि स्व जनन-समुद्र
आसित-सस््योत्तरण-पथोउग्रमू ॥ (09)
अन्ययार्थ: (यस्य जिनशिशिराशो:) जिन मल्लिनाथ जिनेन्द्र रूपी चन्द्रमा
के (समन्तात्) चारो ओर (शिष्यकसाधुग्रहविभव:) शिष्य-साधु रूप ग्रहों
का - ताराओं का विभव (अभूत्) विद्यमान था और जिनका (स्व) अपना
(तीर्थमपि) शास्त्र भी (जननसमुद्रत्रासितसत्त्वोत्तणपथ: अग्रम्) संसाररूपी
समुद्र से भयभीत प्राणियो के पार उत्तरने का प्रधान मार्ग था। उन मल्लिनाथ
जिनेन्द्र की शरण को प्राप्त हुआ हूँ।
ाबडब ड्ायाबा7(दु/। /722-5/75#7-4785720,
डाउन 524प-6&74/47-77270220277/
दापरग्याबफशा 3एका7 /22078559777474,
25769-58//706/872772-/28270272/7 (09)
स्ब58 - तशीक्रतो तर जा05९, उब्ब्वप्र(&/ - था 70फात॑, गत - धवत
रक्त चित उाटागपवाब, 5075#7475807 - .0जणा पट, 5057न-
इबव7 - 250ए25 ॥॥0 $॥ग5 ९, €/278 - फ्रैशाटॉड &008 हॉ्ा5,
ब0/क५/ - उ््लॉटठ007 त हाइवे, ॥27/- ९७, धाफ्रीक्राशटा
- 90०८ए0€5 ७ [72०६७६५ 880, डाप्घ77- 830 ज़ं।032 0ज्., शत
नयागपदा/व - जर्णावीए ००९३ एणी 703, पन््शक्कष - धटगारिवत 705,
डक्षधाक + एशाहड, प्रधंकबाह -+ [0 2055, 747/8/ - जछ़ब्ती। 0 जब,
]68.. $उकक्राशीए 5/004
बाबा) - ज़याउट
जाप शिवा का गराराता३ ज85 8प्रा7000९4 979 8 छग40/ 88970
णी वाइटएफॉर$ गा इ्वाग़ाड थी आपात गा 38 प्र पर0०ता 5 जात
उ्ॉला000ए5 ३5 भाव ऐॉग्राट5ड, गरा$ फछाल्टकुछ छा ॥6 फाांगलएबो
गराल्05 एी प्वाताह 3 एशाडउटित एछटछफार 82055 0९ एठ/ताए ००९था णी'
ध्जाताड 4 रशए प्रणरफाए 52९९८ आाशार 7 6९ 88१८ शत ित्॥।
शा जाधाद्षाव
यस्य च शुक्लं परम-तपोउग्निर्,
ध्यान-मनन्तं दुरित-मधाक्षीत् ।
तं॑ जिन-सिंहं कृत-करणीयं,
मल्लि-मशल्यं शरण-मितो5स्मि ॥ (0)
अन्वयार्थ, (च) और (यस्य) जिनके (शुक्ल ध्यान) शुक्ल-ध्यान रूप
(परमतपो5ग्नि.) उत्कृष्ट तप रूपी अग्नि ने (अनन्त) अन्त को प्राप्त न
होने वाले (दुरित) अष्ट कर्मरूप पाप को (अधाक्षीत्) दग्ध किया था
(त) उन (जिनसिह) जिन श्रेष्ठ (कृतकरणीय) कृतकृत्य (अशल्य)
माया मिथ्यात्वादि शल्यो से रहित (मल्लि) मल्लिनाथ जिनेन्द्र की
(शरणमितो5स्मि) शरण को प्राप्त हुआ हूँ।
उब5ब ९६ 57777 878779-2/0277;
ध/ब्रा-॥बा4/द्वा पाए -772774/277
(बा/7 ॥779-577/977 42708-/47777779777,
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20
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बैतालीय छन्द:
अधि-शत-मुनि-सुद्रत-स्थितिर,
मुनि-वृषभो मुनिसुव्रतोउनधः ।
मुनि-परि-षदि निर्मभौ भवा-,
नुबु-परिषत्परिवीत-सोमबत् ॥ (॥)
अनवयार्थ: (अधिगतमुनिसुत्रतस्थिति:) जिन्होंने मुनियो के उत्तम ब्रतो की
स्थिति को अधिगत-सुनिश्चित अथवा प्राप्त कर लिया है, जो (मुनि
वृषभ-) मुनियो मे श्रेष्ठ है और जो (अनघ-) चार घातिया कर्म रूपी पाप
से रहित है ऐसे (भवान्) आप (मुनिसुब्रत-) ' मुनिसुब्रत' इस सार्थक नाम
को धारण करने वाले जिनेन्द्र (मुनिपरिषदि) समवशरण के बीच मुनियो
को सभा में (उदपरिषत्परिवीतसोमवत्) नक्षत्रों के समूह से घिरे हुए चन्द्रमा
के समान (निर्बभौ) सुशोभित हुए थे।
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इप्राएणा6९6 एच 3 84959 ० डॉंश्वा$
परिणत-शिखि-कण्ठ-रागया,
कृत-मद-निग्रह-विग्रहा-भया ।
तव जिन! तपस: प्रसूतया,
ग्रह-परिवेष-रुचेव शोभितम् ॥ (2)
अन्ययार्थ: (कृतमदनिग्रह) काम अथवा अहंकार का निग्रह करने वाले
(जिन) हे मुनिसुत्रत जिनेन्द्र (परिणतशिखिकण्ठरागया) तरुण मयूर के
कण्ठ के समान वर्णवाली (तपस: प्रसूतया) तप से उत्पन्न (तब विग्रहाभया)
आपके शरीर की आभा-चारों ओर फैलने वाली दीप्ति (ग्रहपरिवेषरुचेव )
चन्द्रमा के परिवेष-परिमण्डल की दीप्ति के समान (शोभितम्) सुशोभित
हुई थी।
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(ग/बगा04-72243- 7767288-8048 728
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०एाट02 0 प्रॉल52 7८तदथ00॥, ॥00:2९6 पाबगराहिटटशा [7९ पा९
]परावा075 व्ले० शालाटाआए प्रट 7007
शशि-रुचि-शुचि-शुक्ल-लोहित
सुरभि-तरं विरजो निज वपु. ।
तब शिव-मति-विस्मयं यते!
यदपि च वाडग्मन-सीय-मीहितम् ॥ (3)
अन्वयार्थ: (यते) हे महामुनिराज! (शशिरुचिशुचिशुक्ललोहित) चन्द्रमा
की किरणो के समान निर्मल एवं सफेद खून से युक्त (सुरभितर) अत्यन्त
सुगन्धित और (विरज-) रज रहित-मल रहित जो (तव) आपका (निज
वपु:) अपना शरीर था वह (शिव) अत्यन्त शुभ तथा (अतिविस्मय)
अत्यन्त आश्चर्य करने वाला (च) और (वाड्मनसीयम् अपि) वचन तथा
मन की भी (यत् ईहित) जो चेष्टा (तदपि) वह भी (अतिविस्मय)
अत्यन्त आश्चर्य करने वाली है।
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#बिए4 3#774-7720-75774 77 ]६/८*
खब्वबए 28 एगा्रह24-502-7777/877 (3)
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जब प्राधाटाइटॉए तार थाएं ज़जावा005, 70ए रथ बा मालाएदई।ं
8९४प्725 (४४2) एटा९ 380 एटा 3७0प0728
स्थिति-जनन-निरोध-लक्षणं,
चर-मचरं अर जगत् प्रतिक्षणम्।
इति जिन! सकलज्ञ-लाउछनं,
वचन-मिदं वदतां-वरस्य ते ॥ (4)
अन्यवार्थ: (जिन) हे जिनेन्द्र। (चर) चेतन (च) और (अचर) अचेतन
रूप (जगत्) ससार (प्रतिक्षण) क्षण-क्षण में (स्थितिजनन-निरोधलक्षण)
ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय रूप लक्षण से युक्त है (इति इद) इस प्रकार का
यह जो (बदता वरस्य ते) वक््तृप्रवर आपका (वचन) चचन है (तत्) वह
(सकलज्ञलाज्छन) सर्वज्ञ का चिह्न है - आपकी सर्वज्ञता का द्योतक है।
ड70यब्र7274-77704/2-/42/5/97748777,
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7६ 77747 52//39/79-2(7८70/04777,
प्रबटकापब-ग्यादिवाा 8/877- 77458 /2 (!4)
878 - फुधापब्रालाटर, /बगब74 - इृद्याटाबा0, य70448 -
0९४9८४णा, /6574774877- 905$28565 0॥8 00407८00 080 ए €्यव77
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॥75 छए०7१, #78/४5/8778777 -- ९एथा४ ॥0727/, 7 - 5 7289, /गाव
-07,90 5धात ैणयाइप्रणना उ॥९€4078, 54&42/9/778 - 0ताताइटालाए८ट,
॥7८74877977 + 70€ रा आए्] ए, एट्यएकाा - डशंबाशाला, :॥77 -
ग5, ए०क/ब्ा7- जञाओस[ए60 फ़ल्एथ्जञ, धब्बशुन-5प्रधा।र, (2- ववराएट
ण पाए
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छाए जणाठ, ९एटाए प्रात्ताटा( ए05525528 पा तंक्रागरटार 040 0
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ठ्णाक्रषाएएड़ 4 5एार एप ॥8 3 50९ जए॥ ए प्र तरा्माइटट08
(54/शद74/8)
दुरित-मल-कलक्ग-म्रष्टक ,
निरुषमम-योग-बलेन निर्दहन्।
अभव-दभव-सौख्यवान् भवान्,
भवतु ममापि भवोप-शान्तये ॥ (5)
अन्वयार्थ. हे भगवन्! (निरुपमयोगबलेन) अनुपम शुक्लध्यान के बल से
(अष्टक) आठ प्रकार के (दुरितमलकलडद्डम्) कर्म मल रूप कलकझ्ढू को
(निर्दहन्) जलाते हुए (भवान) आप (अभवसौख्यवान्) मोक्ष सम्बन्धी
अतीन्द्रिय सुख से युक्त (अभवत्) हुए हैं ऐसा आप (ममापि) मुझ
समन्तभद्र के भी ( भवोपशान्तये) ससार की उपशान्ति के लिये ( भवतु)
होवे।
4एार(8-774/8-42/4764-77457/4//4777,
गााए282774-7789-04/2768 77,470
48॥204-804;4-587/(7एक्लावव] 89/40747,
(बाराप काकयाबरा शबा099-5742702१2 (5)
परष्पाए/8 - ९एए, ॥#8/9 - ईब्रात्वारट 074, ६4/97/6477 - 5९780,
45068/277- 0९ शह्ढगा (एफ९$ ए॑ काफए780779- एापी0एक ब्ाए एश्ीट]
ण €पृप्राआऑर, ॥089 > प्र/शा$९ हश्दांध0 0 59709 ०7027, /4/209
- 09 परी९ एए0ण़ट 0 आउचंबाीबा - गषगह छातवा, ३ीदा।। - 2९
व्वृणफथ्व एक, बाबा - एशणाएए (० प्राण5ऊ॥8, उद्वपाउबए्व] -
4050९४0॥53 शीला ध्शााण ०९ एलत्शएटठ प्राणी ४९१३2४, 88787
- व0० ० पार्ट, ##/8८0- ४0 7 4५ 4897900, 778/78[27 - (0 7९
(5ग्गाशा॥978073) 350, 2#क0748 उ/#ब्राईब?ट - (0 छशवड़ एपला
एग्रावएणञात, 0०23४4७०१ एी 7ल््णाएी गा तिड छ़णात
जा पड आए 3लाबआाएब इक्चातावा०0॥86 एा395
ह।
दमा 24एउपावशंड उत्तर दीदाद्रा7॥7.... 75
07,09७, ७ए प्रा८ ग्राह्चट ए०जटा जी ४ प्रगापएट उरीब्र2-८ब772
पाटवाडा0ा, 709 बात फैफ़मा पल ल्याँ छेंट्शाइालड३ ण ताज ता था
0९ ९९३8 (४9८5 ए ६7745 80 व&॥0206 05002 055 0700"28
(0॥88 जा।दी द््षयाशण एट८ फुशत्शए८ट6 छ8प इशछ5९४) 4 ्रप्तराणए छान
(50 इ8ए5 2लोीडाएश3 5धाशद्ाशापतश्षवाब रखता) फराबा परा8ए 7रट
086 प€ प्राइए्ताला एण शाशारएशा।ए 72 ॥णा फैट 7एॉ१ए 2एट2
एज उ्जातीड
2]
5५ पिद्वता उञ93 59ए277977
शिखरिणी छन्दः
स्तुति. स्तोतु साधो , कुशल-परिणा-माय स तदा,
भवेन् मा वा स्तुत्य, फल-मपि ततस्तस्य च सतः ।
कि-मेव स्वाथीन्याजू, जगति सुलभे श्रायस-पथे,
स्तुयान् न त््वा विद्वान, सतत-मभि-पूज्यनमि-जिनम् ॥ 86॥
अन्ययार्थ, (स्तुति ) भगवान् की स्तुति (स्तोतु:) स्तुति करने वाले
(साधो ) भव्य पुरूष के (कुशलपरिणामाय) पुण्यसाधक-प्रशस्त परिणाम
के लिये होती है (तदा) स्तुति के काल अथवा स्तुति के देश मे (सं,
स्तुत्य,) वह स्तुति का पात्र आराध्यदेव (भवेत् मा जा) हो अथवा न हो
(च) और (तत-) उस स्तुत्य से (तस्य सतः) उस स्तुति करने वाले भव्य
पुरूष को (फलमपि) स्वर्गादि फल की प्राप्ति भी (भवेत् मा वा) हो
अथवा न हो (एव) इस प्रकार (जगति) ससार में (स्वाधीन्यात्)
स्वाधीनता से (श्रायसपथे) कल्याण अथवा सम्यग्दर्शनादि मोक्ष सम्बन्धी
मार्ग के (सुलभे सति) सुलभ रहने पर (कि) कया (अभिपूज्य) इन्द्रादि
के द्वारा पूज्य (त्वा नमिजिन) आप नमिनाथ जिनेन्द्र की (न स्तुयाव्) स्तुति
न करे? अवश्य करे।
पा कैक्करा उधाव उीधाद्धब्रका. 77
अऑएत। डफप उद्द004, ापद/त्र/कबाएं।उ-78 8 उत्र ६844,
2#बलला हाब एड आप्र08/, 7/9-फाहएा (28288 ८व 59/79/
द-्यालक्राय उश्बीएाएफबा, 287 उपराच8702 57 485-08/72
डॉपदा यह (78 प्रवीएब7,528(2-722277- 7फ्रबाफ्राएउ7 (6)
डंपए + फ़ाबएल (0 800, $60/0 - 00९ '्ा0 ऐींटाड हट फ़ाग्एटा,
इन्नट07 - 90086 9स्माए, :757#७/:%977708778278 - ४850ए शाप्र005
बात फजाडेडपरिं 7<5065, 58 - दिया, दक््ंव - 8९ 8 धागा 0 2 फ्रशा
ए4306९ ज्रीाशर 06 ज़ाबएटा 58 ऐए्लिट0, शद्षान्ट 74 78 - पहए ज ए4१
गा ए फ़ाटइटा।, &ए6ढ87 - प्राधध॑ वश 00 ए|।णा 2 फ़ाउएडः ॥8
णीलिल्व, 984/9774 - गरावए 07 फरा8४ ॥४$0 रण 922 9>८श०एएल। फज़रात्र
ता€ (टडा९8 ॥टबवटशारज़ 90-., (808/- #एणा। छोबव फ़ाबप्रस्ते 052, ज प८
एा8ए९९, 28 - थाव१0, 58/8/- (0 06९ चऊ्ता९ पफ्रणआफुएश, (277- भशीलट
8 6 णा€ 07 छ0, 7श877 - ॥] ए॥5 9७५9, 5५484०77778/ -
प्रावुशातवलशा।प, आ4880 + पा प्राड एण6, 5प/2092 - ६70 ट्यडापए
बरश्शाब्रण९, 77435 28072 - 2 एथाग। ० 9]55 870 ज़रटॉधिर, डऑपन/
>श्एा0ट्टाश्ट, 798- 7०प्रात 700, (एक'४- 770९९, श्वश्ब7- पीट फराएवटा
79, 58/82/8727 - क्र-३५४, &2/77फुआक77 -- 2शटारव 0 ४#४णञ्राफुटप
छप गराता4 ा6 पा 2 20558, सब 77 - 00 7.,00, 9 विक्का
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जी॥0 एणीटिड तार जाट प्रात ण प्राइए 80० 70 ०७९६ कद्राव्राएला जतवि
चा९ हगी #९ (९४7९5 ण एल वशाए [0 जला ९ फ़ाब्एश 8 णीशरत,
0०॥९€ परणाए, ॥0फ९सटा, ॥8 टटवए, पा, ॥९ जीा0 73५5४ एणपाँ6 उतर
बल्वुणार पट राएएश बाद धार फरणना डण्साहगि ६0 एशिता 8९2७४ (0
सटका३९ 8 इ0प्ा ६80 एफ मा फ्राड सब, फ्रंट छठी 00 जेंडर 0
इकयए&007 9टगञ₹६ 7स्0092८70९0(ए बए&352 (0 8 ज़णशाफुफश, क्ष0
अण्ात 9७९ ४0 प्रात्मा5८ 70 (0 ए#0०४97% बवा0 ९छ/०ड्वाट८ शत 'िक्काा
फिश। उहलाताब, जरीक्0 8 ए्ण।फ26 एफ पध88 32080 ०ताद 2005
पकड़ डाएठो8 0राएाटथ25 09 इ0/लैएतए 0868 छाए ॥& वुएटडी0एा 00
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त्वया धीमन्! ब्रह्म, प्रणिधि-मनसा जन्म-निगलं,
समूल निर्भिन््न, त्व-मसि विदुषां मोक्ष-पदवी |
त्वयि ज्ञान-ज्योतिरू, विभव-किरणै भांति भगवन्,
नभूवन् खद्योता, इव शुचि-रवा-वन्य-मतयः ॥ (7)
अन्वयार्थ: (हे धीमन्) हे विशिष्ट बुद्धि से युक्त नमिनाथ जिनेन्द्र।
(ब्रह्मप्रणघिमनसा) शुद्ध आत्मस्वरूप मे स्थिर चित्त वाले (त्वया)
आपके द्वारा (जन्मनिगल) ससार रूपी बन्धन (समूलं) मूल-कारण सहित
(निर्भिन्न) नष्ट किया गया है इसलिए (त्वमू) आप (बिदुषा) विद्वानो के
लिये (मोक्षपदवी) मोक्षमार्ग स्वरूप (असि) है। (भगबन्) हे भगवन्।
(त्वयि) आपके (ज्ञानज्योतिर्विभवकिरणै:) केक््लज्ञान ज्योति की सम्पदा
रूप किरणो के द्वारा (भाति) सुशोभित होने पर (अन्यमतय:) सुगत्त,
कपिल, ईश्वर आदि अन्यमतावलम्बी जन (शुचिरवौ) ग्रीष्मऋतुके सूर्य के
देदोप्यमान रहने (खद्योता इच) जुगनुओ के समान (अभूवन्) हो गये थे।
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विधेयं वाय॑ चा, -नुभय-मुभयं मिश्र-मपि तद्,
विशेषै* प्रत्येकं, नियम-विषयैश्चा-परि-मितै: ।
सदाउन्योउन्या-पेक्ष.. सकल-भुवन-स्येष्ठ-गुरुणा,
त्थवया मीतं तत्त्यं, बहु-नय-विवक्षेतर-बशात् ॥ (8)
अन्वयार्थ : हे भगवन्! (सकलभुवनज्येष्ठगुरुणा) समस्त संसार के महान्
गुरु स्वकूप (त्वक) आपने (बहुनयविवक्षेतरवशात्) अनेक नयों की
विवक्षा और अविवक्षा के वश (प्रत्येक) विधि-निषेध, मूर्त-अमूर्त,
स्थूल-सूक्ष्म आदि प्रत्येक धर्म का लक्ष्य कर (नियमविषयै:) 'भंग' सात
ही होते हैं होनाधिक नहीं इस नियम के विषय भूत और (सदान्योन्यापेक्षै:)
सदा एक-दूसरे की अपेक्षा रखने वाले (अपरिमितै:) अनन्त (विशेषैः)
जैकालिक थर्मों के द्वारा (तत् तत्त्व) उस वस्तु स्वरूप को (विधेयं)
80.. 77४० 57009
विधिस्थरूप, (बाय) निषेध स्वरूप (उभय) विधि-निषेध स्वरूप (अनुभयं)
अवक्तव्य स्वरूप (च) और (मिश्रमपि) मिश्ररूप भी - अर्थात् स्थादस्ति
अव्क्तव्य स्थान्नास्ति अवक्तव्य, तथा स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य इस तरह
सात भंग रूप (गीत) कहा है।
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गा 52ए९॥ 0णा75 35
| ग्रद/274, गर्व 77३, पथ ए्रा0 ण वर, 2 द्ा7/#-77275/24/9
गए ण' परार्या, 3 ए2/2ए2-र्#2१8 क्ात॑ 02/572798 2798, ०0
हब भा0 प्रतारद्व 80 0९ 587९ धार, 4 ##पशरीवन2-बास/वउक ण 77579
7प99, ॥॥0829277990]6 07 ग्राएट6 प्र, 5 प्रकाशन गाबागब, 7९ धात॑
प6९४९०7०६४७।९, 6 .7805/24/6 बाबद्वां02, प्रगाटव। द्वाव0 ॥0९5ट% 7८,
7 प्रवेटब गाव/ाइस्/टवाब बाद्रांबातत, तट परवरड। कराते ॥00827080९
अहिंसा भूताना, जगति विदित ब्रद्म-परम॑,
न सा तत्रारम्भो5स्, -त्यणु-रपि च यत्राश्रम-विधौ ।
ततस्ततू - सिद्धयर्थ, परम-करुणो ग्रन्थ-मुभयं,
भवा-नेवात्याक्षीनू, न च विकृत-वेषो-पश्चि-रत: ॥ (9)
57 4226 कलक। उप उकाबा2/92... ]83
अन्वयार्श: हे भगवन्! ( भूतानां) प्राणियों की (अहिंसा) अहिंसा (जगति)
संसार में (परम ब्रह्म) परम ब्रह्म रूप से (विदितं) प्रसिद्ध है अर्थात्
अहिंसा ही परम ब्रह्म है परन्तु (सा) वह अहिसा (तंत्र) उस (आश्रमविधौ)
आश्रम विधि मे (न) नहीं है (यत्र) जिसमें कि (अणुरपि) थोडा भी
(आरम्भ:) आरम्भ होता है (तत:) इसलिए (तत्सिद्धयर्थ) उस अहिसा
धर्म की सिद्धि के लिये (परमकरुण;) परम दयालु, होकर (भवानेव)
आपने ही (उभय) बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दोनों प्रकार के ( ग्रन्थ)
परिग्रह को (अत्याक्षीत्ू) छोडा है (च) और (विकृतवेषोपधिरत:)
यथाजात लिंग के विरोधी वेष तथा परिग्रह मे आसक्त (न अभवत्) नहीं
हुए हैं।
बीएखाउ58 9/#एि7477, 73240 एश्ाद्राया 23/774-/747/व/7477,
गब अब #ब/ब/47772970-85, + (काएचवए ८६ उक्र78॥0747778-77/879
(8(45/8/-57 ४ 80870/7977, /29797777-87770 &7977009 - 7772/4)'॥7,
शीवाशचा226/3/257/7, यव ८ 77/7/4-72520-720/7 +3£4/7 (9)
4#77758 - 970-श0!शा०९, 2#प्रतयवा -+ पथ ॥रण एथा?5, /2&4807 -
गा पीर ८ णा9, प्रद्धाद्दाए - ॥$ ब९एंगागओर0 85, छब्वफबइकराकाताा -
शाफ़ञाशारटाफए ताशाश वण्ाएए, 7728 -व870, 54- 9 ४एफाशयिशफ क्षालर
पृण्बा।ए एस ॥0-श0८ा0९, #8098- ॥ पीद्व 0 क्षाप, #/277278/7- 485
जाए ॥058 5720 07 00एप्राटव, 3257 - 0 €५585, बरगपा22- स्फटा 8
भाएगा शैशाला। ए् शतलशात्ट, ८४-३१, उबर - 7 एल, 2&72774-
प्रध/बए - ४32९, /8/88 + ऐशटणिट, ((तप7/बश्ाशा - (0 वा
पीबा वृणबाए णएी ॥णा-शणंलशाटर, 87277 - शर्त, बाप - 0
गर्का2ताप, &67/74877 - इशाइट 060 ए05525507, ए//8)/क77 - 000
(श7०५४ ए &शाओं 804 प्रांधयान, 27472:8- 4॥00 एण प्राए 0ण॥१,
4072/5/768४ - ०0णाफ्रशटॉ9 28४४ प9, 7728 - 40 ॥0 ८७- 00, ॥7/7/-
एट४०कश८/78/9/ - 00 06 €जांटा। प्रब्ा ९एशा पर पाशर णणशा।
० ए790$525श2 200085$ ला णा$ हर #बरंट 5 वाएशफ्रंशआ4-0000,
88/2ए8/- >०णएा 00 [+6€
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बपु भूृंषा-वेष,- व्यवधि-रहितं शान्त-करणं,
यतस्ते संचष्टे, स्मर-शर-विषातंक-विजयम ।
बिना भीमे शस्त्रैे, -रदय-हृदया-मर्ष-बविलयं,
ततस्त्वंनिमोह , शरण-मसि न* शान्ति-निलय. ॥ (20)
अन्वयार्थ हे भगवन्! (भूषावेषव्यवधिरहित) आभूषण वेष तथा वस्त्रादिक
के आवरण से रहित और (शान्तकरण) अपने-अपने विषयों से नि स्पृष
इन्द्रियो से युक्त (ते) आपका (वपु ) शरीर (यत-) चूंकि
(समरशरविषातकविजयम्) काम के बाणरूप विष से उत्पन्न व्याधि की
विजय को तथा (भीमै शस्त्र बिना) भयकर शस्त्रो के बिना
(अदयहृदयामर्षविलयं) निर्दयहदय सम्बन्धी क्रोध के विनाश को (सचष्टे)
कह रहा है (तत,) इसलिए (त्व) आप (निर्मोह) मोह रहित और
(शान्तिनिलय ) कर्मक्षय से उत्पन्न होने वाली शान्ति के स्थान है तथा
(न ) हमारे (शरणम्) शरणभूत-रक्षक (असि) है।
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विषभजातावुद्गता छन्द:
प्रगवा-नृषि: परम-योग-दहन-हुत-कल्मफेथन, ।
ज्ञान-विपुल-किरणै: सकल, प्रतिबुद्धय बुद्ध-कमलायतेक्षण: ॥ (2)
हरिवंश-केतु-रन-नद्य-विनय-दम-तीर्थ नायक ।
शील-जलधि-रभवो विभवस्व-मरिष्ट-नेमि-जिन-कुब्जरोप्जर: ॥ ((22)
अन्वयार्थ - ( भगवान्) जो इन्द्राद के द्वारा पूज्य हैं, (ऋषि:) जो परम
ऋद्धियों से सम्पन्न हैं, (परमयोगदहनहुतकल्मषेन्धन-) उत्कृष्ट शुक्लध्यान
रूपी अग्नि में जिन्होंने कर्मरूपी ईंधन को होम दिया है, (बुद्धकमलायतेक्षण:)
जिनके नेत्र खिले हुए कमल के समान विशाल हैं, (हरिवंशकेतु:) जो
हरिवश के प्रधान हैं (अनवद्यविनयदमतीर्थनायक:) जो निर्दोष विनय और
इन्द्रिय दमन के प्रतिपादक शास्त्र के प्रवर्तक हैं, (शीलजलधिः) जो शील
के समुद्र हैं और (अजर ) जो वृद्धावस्था से रहित हैं ऐसे (त्वं) आप
(अरिष्टनेमिजिनकुज्जर*) अरिष्टनेमि जिनेन्द्र (ज्ञानविपुलकिरणै;) ज्ञानरूप
विस्तृत किरणों के द्वार (सकल) समस्त लोकालोक को ( प्रतिबुद्धय )
प्रकाशित कर अथवा जानकर (विभव ) ससार से मुक्त (अभव-) हुए थे।
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पाद-सुप्ल-ममल भवतो, विकसत्-कुश्ेशय-दला-रुणो-दरम् ॥ (23)
नख-छद्ध-रश्मि-कक्याति-रुचिर-शिखरादगुलि-स्थलपू ।
स्वार्द-गियत-मनस: सुधिय:, प्रणमन्ति मन्र-मुखरा महर्षय: ॥ (24)
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अन्वकार्थ: हे भगवन्! (स्वार्थनियतमनस:) मोक्षरूप स्वार्थ में जिनके मन
नियन्त्रित हैं (सुधिय:) जो उत्तम बुद्धि से युक्त हैं और (मन्त्रमुखरा:) जो
मन्त्र से अथवा सामान्य स्तुति से वाचाल हैं ऐसे (महर्षयः) गणधरादि
बड़े-बड़े ऋषि (भवतः) आपके (तत्) उस (पादयुगल॑) चरणयुगल को
(प्रणमन्ति) प्रणाम करते है (यत्) जो कि
(त्रिदशेन्द्रमैलिमणिरलकिरणविसरोपचुम्बितम्) इन्द्रों के मुकुटों में लगे हुए
मणियों और रत्नों की किरणों के समूह से चुम्बित हैं, (अमल) निर्मल
उज्जवल हैं, (विकसत्कुशेशयदलारुणोदरम्) जिनका तलभाग खिले हुए
कमल दल को समान लाल वर्ण का है, तथा
(नखचन्द्ररश्मिकवचातिरुचिर-शिखरागुलिस्थलम्) जिनकी अंगुलियों का
स्थान नख रूपी चन्द्रमा की किरणों के परिजेष से अत्यन्त मनोहर अग्रभाग
से सहित हैं।
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ध्याएफ्रादणढ 0 00०ए:८एए, 47- च्पारारटए, 7फपटए४ - ए९३४गाह,
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दति-ऋ-बाड़ु-रवि-विम्ब-किरण-जटिलांशु- मण्डल: ।
नील-जलद-जल-राशि-वपु: सह बशुभिगंझड-केतुरीश्वरः ॥ (25)
भक्ति-मुदित-हृदया जन्श्करी
अन्वयार्थ: हे भगवन्। (च्युतिमद्रथागरविबिम्बकिरणजटिलाशु-मण्डल:)
कान्तिमान् सुदर्शन चक्ररूपी सूर्य बिम्ब की किरणों से जिनकी कान्ति
का मण्डल व्याप्त हो रहा है (नीलजलदजलराशिवपु:) नील मेघ
और समुद्र के समान जिनका श्याम शरीर है तथा (ईश्वर:) जो तीन
खण्ड के स्वामी हैं ऐसे (गरुडकेतुः) श्रीकृष्ण, (च) और (हलभृत्)
बलभद्र इस प्रकार (स्वजन भक्ति मुदित हृदयौ) आत्मबन्धु की भक्ति
से जिन के चित्त प्रसन्न हो रहे थे, (जनेश्वरौ) जो लोक के स्वामी
थे और (धर्मविनयरसिकौ) जो धर्मार्थ विनय के रसिक थे - ऐसे
दोनों भाईयों ने (बन्धुभि, सह) अपने अन्य भाईयों के साथ (ते)
आपके (चरणारविन्दयुगलं) चरणकमलों के युगल को (सुतरां)
बार-बार (प्रणेमतु.) प्रणाम किया था।
चरीप७-278274-/48-787-077709-फ््22:740व75#-7797773/97
प्रबिउर्धाबध328/4-28-72777 उ्ीरह >्दतए2#7 627742-2ए-
75 ए॥724 (25)
2ी84-क्/प८टड ॥2 उशड#2-004/0-फरपदोदव /77 27427 /बपटडीएबाबए
वधबाए2॥- 7878-57 उप्/क्रावाए, टका27979-777702- 77 68/477
काशाट2/०7 (26)
क्790. उश्बाबायशच 002
क्रपरधगाडा- शंल्कत07005, उब६876&2- 5प्रतंश्ञशाद्य (क्षेतत, स्का -
धप0, छाए - फ्राबहुट छा वए९, दाना - 74ए5, /बध/87870 - ए25
09078, 272704/8/7 - [ब्ठ, 28 - वक्ष: ते 8 छाप ताएइ:,
27 - बद्रगन- 0९0 ल0ण0075, /8/8 /25/7- इट 0 ००2, ध्एएी +
00099, ड#ब - 30007फ्०्मालत 09, 2#/द#ए७म77 - 0प्रटा' 00प्च्चात३
800 उल80ए९5, &877249-£2/0- जात शबंत३, /४ए४/४/ - पाब्रहांटा
चाह (वाट ए७5 ० ९ स्का
49/4-0876 - 39[4#009673, (2- [€ ण पाए, 3ए8/828 - ०१९ ०
फशा 0, 8467 - 4९ए०007, खाएदार-हप64 ० - शाप ॥९875
एि एी ॥07% /28८४78797- ए4शटा 0 ८ ए9टछाट, द॥बारा7ब- ख्वाब
-॥लाए20फ5 ग्गरप्रात्ण, 78540 - 0ए2९३ 0स उप्क्काक7ा - ब8च्चा। धात॑
बहक्ा।, टक्घद्ाबाबए48 - 4005 €ट, एय8&2/977- छएशा 0 ज ४०,
शा॥77207 - एणडाफफटव 07 90ए८त ॥0
जाए तहत जञा0 छ०७६ जरावफफटत गा 6 हाटापड 799४5
टपरश्भञागणार 70॥ 5फ्तदशाबा (हरेतब ए३5 तंबर बचत णपाश वा
९णाफ़ाटातणा ॥एट गया ब्रतंशा 20705 ब्रात हतट काट एथंटाड एणी 0९
0९९का, 6 शा० छब्च5 0९ 78527 0702८ फकरार्ट-णिएपं 0णीए ट्वाप
गेंणाड जाए जाई ण०पाल 88 छत, 000 24४0४ ९४६८4 ४७५
उ९एशला९2९ (0४४795 प्राद्या' 0'जा धा भाव जञा0 एलरट प्राट 7पीटा$ 0
प€ 9९०एा८ 0 छएशट णि। ए पणाधा।ए, पटए 7९एट॥४20ए ४0एटत
प्रा0 पाए 40005 6९६ 0. 5त7 87908 रिटणा गराटततर०
ककूदं भुवः खचर-योवि-दुषित-शिखरः रलडकूत: ।
मेघ-पटल-परिवीत-तटस्तव, लक्षणानि लिखितानि वज़िणा ॥ (27)
बह-तीति तीर्थ-मृषिभिश्य, सतत-मभि-गम्य-तेपत्य च ।
प्रोति-वितत-हृदयै परितो, भृश-पूर्जयन्त इृति विश्रुतोउचल: ॥ (28)
अन्वयार्थ: (भुव ककुदम्) जो पृथ्वी का ककुद है, बैल के कन्धे के
समान डँचा तथा शोभा उत्पन्न करने वाला है, ( खचरयोषिदुषितशिखरे :)
जो विद्याघरो की स्त्रियो से सेवित शिखरो के द्वारा (अलकृतः) सुशोभित
हैं, (मेघपटलपरिबीततट:) जिसके तट मेघो के समूह से घिरे रहते हैं
(वज्रिणा लिखितानि) जो इन्द्र के द्वारा लिखे हुए [है नेमिनाथ] (तब
लक्षणानि वहति इति ती्) आपके चिह्नो को धारण करता है इसलिए
खत स्िडगअर उफब ठीक). 79
तीर्थस्थान है, (सततं अद्य च) हमेशा तथा आज भी (प्रीतिविततद्वदयै;)
प्रीति सेविस्तृत चित्तवाले (ऋषभि: च) ऋषियों के द्वारा जो (परित:) सब
ओर से (भृशं) अत्यधिक (अभिगम्यते) सेवित है (इति) ऐसा वह
(विश्वुतः) अतिशय प्रसिद्ध (ऊर्जयन्त: अचल:) कऊर्जयन्त नाम का पर्वत
है जिस पर जाकर कृष्ण और बलराम ने आपके चरण युगल को प्रणाम
किया था। +
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बहि-रत-रप्यु-भयथा च, करण-मविधाति नार्थकृत्।
नाथ! युगप-दखिलं च सदा, त्वमिदं तला-मल-कवद-विवेदिथ ॥ (29)
अत एव ते बुध-नुतस्य, चरित-गुण-मदू- भुतो-दयम् ।
न्याय-विहित-मवधायय जिने, त्वयि सुप्रसन-मनस: स्थित बयम् ॥ (30)
अन्वयार्थ: (हे नाथ) हे स्वामिना। (त्व) आप (इद अखिल) इस समस्त
ससार को (युगपत् च सदा) एक साथ और सर्वदा (तलामलकवत्)
हस्ततल पर रखे हुए स्फटिक के समान जानते है तथा आपके इस जानने
मे (बहि-) बाह्य और (अन्तरपि) अभ्यन्तर (करण) इन्द्रियाँ पृथक्-पृथक्
(च उभयथा) और दोनो प्रकार से (अविघाति) बाधक नहीं हैं एव
(अर्थकृत् न) उपकारक भी नही हैं (अत एवं) इसलिए (बुधनुतस्य)
विद्वानों के द्वारा स्तुत (ते) आपके ( अद्भुतोदयम्) आश्चर्यकारक अभ्युदय
से युक्त तथा (न्यायविहित) न्यायसिद्ध-आगम ज्ञान से सिद्ध ( चरितगुणं)
स्वकार्य की प्रसाधकता का (अवधार्य) निश्चय कर (कय ) हम
(सुप्रसन्नमनस.) अत्यन्त प्रसन्न चित्त होते हुए (त्वयि जिने) आप जिनेन्द्र
मे (स्थिता.) स्थित हुए हैं - अपने कार्य का साधक समझ आपकी शरण
मे आये है।
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वंशस्थ छनन््द
तमाल-नीलै: सथनुस्तडिद-गुणै:,
प्रकीर्ण -भीमा-शनि-वायु-वृष्टिभि: ।
बलाहके वैंरि-वशैरुपदुतो,
महा-मना यो न चचाल-योगतः ॥ (3)
अन्ययार्थ: (तमालनीलै:) तमाल वृक्ष के समान नीलवर्ण, (सधनुस्तडिदगुणैः)
इन्द्रधनुषों की बिजली रूप डोरियों से सहित, (प्रकीर्णभीमाशनिवायुवृष्टिभि:)
भयंकर वज् आधी और वर्षा को बिखेरना वाले ऐसे (बैरिवशै:) शत्रु के
वशीभूत (बलाहकै.) मेघो के द्वारा (उपद्गुतः) पीडित होने पर भी
(महामना:) उत्कृष्ट धैर्य के धारक (यः) जो पार्श्वनाथ भगवान् (योगत:)
शुक्लध्यान रूप योग से (न चचाल) विचलित नहों हुए थे।
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बृहत्फणा-मण्डल-मण्डपेन यं,
स्फुरत्तडित्पिड्र-रुचोप-सर्गिणम् ।
जुगृह नागो धरणो धराधरं,
विराग-संध्या-तडि-दम्बुदो यथा ॥ (32)
अन्ययार्थ: (उपसर्गिणं) उपसर्ग से युक्त (य) जिन पाश्व॑नाथ भगवान् को
(धरणो नागः) धरणेन्द्र नामक नागकुमार देव ने (स्फुरत्तडित्पिड्ररूचा)
चमकती हुई बिजली के समान पीली कान्ति से युक्त
(बृहत्फणामण्डलमण्डपेन) बहुत भारी फणामण्डल रूपी मण्डप के द्वारा
]96.. 8 शा्पफाधए 5/972
(तथा) उस तरह (जुगूह) वेष्टित कर लिया था (यथा) जिस तरह कि
(विरागसंध्यातडिदम्बुद:) काली सध्या के समय बिजली से युक्त मेघ
(चराघर) पर्वत को वेष्टित कर लेता है।
#7#॥8/77979-7787764/4-काक्षा'ं॥[ए2ट74 एथ्दा,
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&7/2/- ॥08०, [/#27॥ साब्रए749/9 - ९फ्॒धा१06९60 ॥004, कब्रवंदएटाब
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हा5 57004 5४४६ 08 (९ 8९फुशा। 8006 [.॥गशावा३, णियार 2
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5 गरएहट टफ़ुक्कावंट्व ॥006 छाए ट०जएए एलाएज़ एहञा5, 000८6
38 # 8 ७०७६ जात 449९5 ण पशञाप्रयड 40 टाहएण06 ९ 409 ०
8076 पा0प्राध्या ॥ 8 0 ट्श्टाए
स्व-योग-निस्ब्रिश-निशात-धारया,
निशात्य यो दुर्जव-मोह-विद्विषम्।
कार सा उन उंक्लकााओाए.. 97
अबा-पंद्षा-हईस्थ-मचिन्त्य-मदभुत्तं,
ब्रिलोक-पूजाति-शयाश्फ्द पदम् ॥ (33)
अन्ययार्थ: (यः) जिन्होंने (स्वयोगनिस्त्रिशनिशातधारया) अपने शुक्लध्यान
रूप खड़्ग की तीश्ण धारा के द्वारा (दुर्जयमोहविद्विषम्) मोहरूपी दुर्जय
शत्रु को (निशात्य) नष्ट कर (अखिन्त्यं) अखिन्तनीय, (अद्भुत)
आश्चर्यकारक गुणों से युक्त, (त्रिलोकपूजातिशयास्पद) प्रिलोक की पूजा
के अतिशय के स्थान (आहन्त्यं पद्म) अर्हत् पद को (अवापत) प्राप्त
किया था।
डए92-77०088-7750777548-77574/4-27्व 72,
गाडद्वात 20 वफ्ाबकनाा0/4-गवीएड्रीडार
शण्ब-08497-747/-7742:7/9-7794//70/977,
(7/0/2-277/20-547257244/77 24472 (433)
डएबठद्ल्क-गराइधा7528-77574264-408747॥ - 9५४ ए३2 08८ 8६70 ९१४2८
ण € 5छण० ण 7फ्रञाट 5#7४79477क्ा2ट 700/9007॥, 277६74678 -
बााण।।॥(26, ॥87- ए॥0, /०४2७४४- #7ए॥2फ्रीट, 27082- 4९घ५$४७ण॥,
ग्र्वयधडऑग्य + शाल्याज प तीर 07च एणएी, 2४2278/- बरभा॥९0,
बाीबा(गबा2 + डॉट छा वाश/ब/4-009, बटाप्र/ए#70 -
धार्णाफालालाशंफ।ट, 2220ए/877- प्रागिटए शाॉफएएणए5ड, 07/068 - ॥
मा फट फररट जर0705, 7ए4 - श्टाशध३20, 20572)५4.7 - 03९ 703
काएा॥ार, 259087977 - 980९, 80977 - डबट्टट
एआार ह्ाशत्रक्त ज़85 ०७००5फए एरज़्ाड़ [0 जी फट गालतान्राजा, सात
शबराशारब उिता उाच्शातर4ब छ83 &0505टाए टश82705526 ॥ 8९९७
गिश्वाबतए07 तडाएड ० प्र एड्ी इ2० ण 9९०0काय्ट 3 ०0०057४85
ए78सांजाड़ ॥2 फाशाएलाणा, ठैशाक्षए॥ 5्रतरशाब0809, प 5
ग्राणित्न शंघ्ांटड
ए्फ्ार दडकाबाा गशाइटाब्काए 86९4, 0 7,.00 एश६0२9 पा)
गंजवकता३, पा! विट ड87 ९१३९ जी धार इच्छा ० फए #७६५-
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अमीश्यरं वीक्ष्य विधूत-कल्मषं,
तपोधनास्तेडपि तथा बुभूषवः ।
वनौकस: स्व-भ्रम-बन्ध्य-बुद्धवः,
शमोपदेश शरणं प्रपेदिरे ॥ (34)
अन्वयार्थ: (य) जिन पार्श्वनाथ भगवान् को (ईश्वर) समस्त लोक के
ईश्वर तथा (विधूतकल्मष) घातिचतुष्क रूप पाप से रहित (वीक्ष्य)
देखकर तथा (बुभूषव ) उन्हीं के समान होने के इच्छुक (वनौकस:)
बनवासी (ते तपोधना- अपि) वे तपस्वी भी (स्वश्रम-बन्ध्यबुद्धय:) अपने
प्रयास मे निष्फल बुद्धि होते हुए (शमोपदेश) मोक्षमार्ग अथवा शांति का
उपदेश देने वाले भगवान् पाश्वनाथ की (शरण प्रपेदिरे) शरण को प्राप्त
हुए थे।
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स सत्य-विद्या-तपसां प्रणायक:,
समग्रथी-रुग्र-कुलाम्बरांशुमान् ।
मया सदा पाश्य-जिनः प्रणम्यते,
विलीन-मिथ्या-पथ-दृष्टि-विश्वम: ॥ (35)
अन्वयार्थ: (सत्यविद्यातपसा) जो सत्य विद्याओ तथा तपस्याओ के
(प्रणायक) प्रणेता थे, (समग्रधी:) जो पूर्ण केबलज्ञान के धारक थे
(उग्रकुलाम्बराशुमान) जो उग्र वशरूपी कुल के चन्द्रमा थे और
(विलीनमिथ्यापथदृष्टिविश्रम.) जिन्होंने मिथ्यामार्ग सम्बन्धी कृदृष्टियों से
उत्पन्न विभ्रमो को नष्ट कर दिया था (सः) वे (पाश्वजिनः) पार्श्वनाथ
जिनेन्द्र (मया) मुझ समन््तभद्र के द्वारा (सदा) हमेशा (प्रणम्यते) प्रणत
किये जाते है - मै उन्हें प्रणाम करता हूँ।
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स्कन्धक छनन््दः अथवा आर्यागीति इन्दः
कीर्त्या भुवि भासि तया,
वीर! त्वं गुण-समुच्छुया भासितया,
भासोडु-सभासितया,
सोम इब व्योम्नि कुन्द-शोभासितया ॥ (36)
अन्वयार्थ: (हे बीर) हे वर्धमान जिनेन्द्र। (त्व) आप (भुवि) पृथिबी पर
(गुणसमुच्छुया) आत्मा और शरीर सम्बन्धी गुणों से उत्पन्न (भासितया)
सुशोभित अथवा उज्जबल (तया) उस (कीर्त्या) ख्याति से (उड्डुसभासितया)
नक्षत्रों की सभा में आसित-स्थित एवं (कुन्द-शोभासितया) कुन्दकुसुम की
शोभा के समान सफेद (भासा) कान्ति से (व्योम्नि) आकाश में (सोम
इव) चद्धमा के समान (भासि) सुशोभित होते हैं।
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तब जिन! शासन-विभवो,
जयति कला-बपि गुणानु-शासन-विभव- ।
दोष-कशासन-विभव. ,
स्तुबन्ति चैन॑ प्रभा-कुशासन-विभव: ॥ (37)
अन्वयार्थ, (हे जिन) हे बीर जिनेन्द्र! (गुणानुशासनविभव:) भव्य जीवो
के भव को नष्ट करने वाला (तव) आपके (शासनविभव.) प्रवचन का
यथावस्थित समस्त पदार्थों के प्रतिपादन रूप सामर्थ्य (कलावषि) कलिकाल
मे भी (जयति) जयवन्त हे - सर्वोत्कृष्ट रूप से वर्तमान है (च) और
(प्रभाकुशासनविभव ) प्रभा-ज्ञानादितेज से लोक के तथाकथित हरि हरादि
स्वामियो को कृश-महत्वहीन करने वाले (दोषकशासनविभव:) दोष रूप
चाबुको के निराकरण करने मे समर्थ गणधरादि देव (एन) आपके इस
शासन विभव की - प्रवचन सामर्थ्य की (स्तुवन्ति) स्तुति करते है।
ईद ॥7747 592587-7/7270
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अनवद्य: स्याद्वादस्,
तब दृष्टेष्टाउविरोधतः स्याद्वाद: ।
इतरो न स्याद्वाद:,
स् द्वितय-विराधान् मुनीश्यराउस्याद्वाद: ॥ (38)
अन्वयार्थ: (हे मुनीश्वर) हे मुनियो के ईश्वर! (स्थाद्वाद:) 'स्यात्' इस
कथज्चित् अर्थ के वाचक शब्द से सहित (तव) आपका (स्याद्वाद:)
स्थात् अस्ति इत्यादि अनेकान्त रूप कथन (दृष्टेष्ट5विरोधत:) प्रत्यक्ष तथा
2084. $एन्पार््रप ठ074
आगम आदि प्रमाणों से विरोध न होने के कारण (अनवच्च:) निर्दोष है।
इसके विपरीत (अस्याद्वाद:) 'स्थात्' इस शब्द से रहित (इतरः) अन्य जो
(वाद:) एकान्त रूप कथन है (सः) वह (द्वितयविरोधात्) दृष्ट और
इष्ट-प्रत्यक्ष तथा आगम आदि प्रमाणों से विरोध होने के कारण (अनबच्यः)
निर्दोष (न) नहीं है।
बाहर: 32८25
(०8 42075/2572द48070274/9/ ३2720.
ई70 74 3ए24/229/,
58 बरीयद्वब-704ी#प/7ए75/एद्ा4-॥542/2०44 (38)
कायदं।27 - 40९58, 5;24/87289 - ९पृएफ९० जात ९ एण0
हब प्राध्याा?2, 70 टॉक) ०0शाॉट्शा, ४०४ - 779 ८07८०एछा ०
झुद्रधीखब9, 225॥/25762-4/77078/47 - प्रशट छशाए 70 काशिशा०ट
9€छह्टा प्र ९शतला बात प्राटिा26 छाए, उ28472449/- क्रार॑टबराए2
इाटा।लाड प्रताटशा।ह (गा टशाॉशा 0णाएश, द्वाा70- वीट गी।25,
249- ॥0[, 2729/-व85, ४३०4/- जाली ॥8 ९ लै्ाआर शंबाशाशा।, 58-
पिबबा, धीग/2च-770202/- परश€ फशाडए ९ण्राबदालाएणा एलणरल्टा 0९
९ातथा बाद 06 प्राष्गिर्त छा00ड5ि, 77एग757एक727 - 0 पार शावरशंधश
ए् दवावर्र/वाउ5ड 200 ॥९ #2 582९5, 45द्रधी/829/ - शाा0७६ ९
एछ00 &एढ४/ 9८४708, “0 8 एशांब्वा) 007९5
(3), ९ प्राइडंटा 0 दद्चा7774785 8४ पार एट ४225, 9 प्राव
गगलावदा4, ॥॥ए बाटोटब्राएट ०णालका णी हध्चरव/849, 02526 जा 2
ए्रणत 5746 प्रट्था॥8 ॥ 8 एशांका) 0एाटड/", एटाएए 6९९ ०0 ९
०णागिल एशणल्शा फीट टशएटा बधा0 हार प्रशिल्त छए004 (टएृणारत
एि' 4020 एराक्राय) ॥ #िएर९४55 &॥0 3८००क्व)९ 00 की (प्र
40 ॥, 07९ छा८९८एा ण एंप्थाएबए४023, शंशणीा ॥$ 92700 ए ॥८ एपए॥
रण 578/ 75 ॥॥] 0 ९ण॥74क्ट7075 एशंफटटा (7८ रशतक्षश्ा। 826 02
पजाहिारत ए005, 70 5 70060 जाए विपर5, ॥202 प्रात80८८7४0८
त्व-मसि सुरासुर-महितो,
ग्रन्थिक-सत्त्याशय-प्रणामाउमहितः ।
लोक-त्रय-परभम-हितो ,
5नावरण-ज्योति-रुज्जबलद्-धाम-हित: ॥ (39)
खक्ायं चाह महान ठीक्रद्यबाा.. 205
अन्ययार्थ: हे भगवन्! (त्वमू) आप (सुरासुरमहित:) सुरो तथा असुरों से
पूजित हैं, किन्तु ( ग्रन्थिकसत्त्वाशयप्रणमा5महितः) मिथ्यादृष्टि प्रणियों के
अभकत हृदय से प्राप्त होने वाले प्रणाम से पूजित नहीं है, आप
(लोकत्रथपरमहितः) तीनो लोकों के परम हितकारी हैं और
(अनावरण-ज्योतिरुन्जवलद्धामहित:) केवलज्ञान से प्रकाशमान मुक्ति
रूप स्थान को प्राप्त हैं।
श्र-फाह्डा आए5डप्राव-774//0,
€/870077/2-68/785/8 789-/749778777-97728/77/4/7,
0/£48-7498-/08787720-77/0,
बााब4ए727972007-प॥ए8/24-2/097249-77/82 (39)
#ब77 - 07, 257 - था, उप्ाबडाए/ -+ 2005 800 027075$ शापटट,
7777277/2/ - 90597720 0प द्वाब00/६4-54678 - 75-007ट८९८०,
बाश्चर5स्व॥ - 707-क्2ए022९53, 7787097778-7779777047 - 70 72८ए2726 ४७५,
40/६28-028)282- ० 0९ [766९ ज़ण005, फ्ाबा?772-77/- 87॥ 0९ टवाटद2४ॉ
० श्री शा्राशऊ ० था एशाए5, बा/ब्ाक्वाब72 - 62९09 ० 2 00एट
णी &बाएएआ2 098, 7707770ए78/2/- ॥रण्गराए९८त 09 0९ ॥80 0० #ट/8/
उप्रबान, दॉाबिगाब + 3०046 0 जाठत॑ं3॥8 0 इशर४ाा707, 7/87 -
बाशा2टत
0 8 शाब गाशावाब, ॥॥600 ॥&( छएण्ाभाफुडल्व एप 8045 बाव॑
वशाणजाड$ भाएे९, 50 ए०प्र 2728 500 72ए7226 07 ५९ परफुण्ट ७0 0८
प्रा।5डफापटत उक्र0ए था ह6 ट्वाटक्वॉटडआ एल ज्राडाट ए्ी था। 90085 पा
पल पएह€ सरण]05 भाव गत कज्वा॥26 07508, ॥977600 9७५ (7८
प्डा( एण &274/ 77472
सभ्याना-मभि-रुचितं,
द्धासि गुण-भूषणं ख्रिया चारु-चितम् |
मग्ने €वस्यां रुचि त॑,
जयसि उच मृगलाञउछनं स्वकान्त्या रुचितम् ॥ (40)
अन्ययार्थ: हे भगवन! आप (सभ्यानां) समवशरण सभा में स्थित भव्य
जीवों के (अभिरुचितं) रुचिकर, तथा (प्रिया) अष्ट प्रातिहार्य रूप लक्ष्मी
206... $:ढएढ8772800 5/0607
से (चारुचित) सुन्दरतापूर्वक व्याप्त (गुणभूषणं) गुणों के भूषण को
अथवा गुणरूप आभूषण को (दधासि) धारण करते हैं (च) और
(स्वकान्तया) अपनी कान्ति के द्वाय (स्वस्यां रुचि) स्वकीय कान्ति मे
(मग्न) निमग्न (रुचित) सुन्दर (त मृगलाज्छन) उस चन्द्रमा को (जयसि)
जीतते है।
3227॥/474-0792/7-7727/8777,
चंबस्48 €पा१-2/ए5/द7बाा उगएएब टक्ाए-टदवत7,
गावबढा2काए उधर 7एटाध7,
काल दब फ्राए8१/०एट्मबानाए ड4/276078 7एट/वय/ (40)
35200820977 - 855थ॥70 ९९ व पए॥ए उ्काबरबरीबाया, 2077ए2/(77-
१रचशारटत 09, 622/457- पटच्ारी, &एाब-2#ए57487॥77- 0वराक्षााटा(5
ए थी एश१३68 रशप्रट४ ए तल,॒कागाशा था0 ॥९ ॥7९, #7778 -
0९6 ०५ प्र९ ९007 ए' शड्ढी //207/47025, दक्शाए-202777-॥॥९
प्र0४ 7९ण्रांशाएहु द्रात 92१एएिएि, करबक्षाप - बॉजबए४ 40507 ८6
ग, ७एब5एढ77 - 7[8 0जशा, 7ए८ट7 + हा0ए, हा - ही, अब॒श्द्व57 -
8079455८४॥ 07 ज्वा$ 0५९, ८७ - &॥0, काए4/ब7टीकाबगए +-
#९्श्ाटिएस्ह8 700, #४४४०76८ - ॥7 079 ए7ए्रशटबों ९>८शॉीटाट,
गएछवाए - ए९ब्रपा!
0 शञा पाब ग्राशावाब, तार बी छल परापर णी दरबार
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तब भावानां मुमुक्षु-कामद! माय: ।
श्रेयान् श्रीमद-मायस्,
त्वया समादेशि स प्रयामदमाउय. ॥ (4॥)
अन्ययार्थ: (मुमुक्षुकामद) मोक्षाभिलाषी जीबो के मनोरथ को देने वाले
(जिन) हे वीर जिनेन्द्र। (त्व) आप (गतमदमाय:) गर्ब और माया से रहित
है तथा (तव) आपका ( भावाना) जीवादि पदार्थ विषयक (माय:)
577 रबर खाद कीशप््शात/2:... 207
केवलज्ञान अथवा आगम रूप प्रमाण (श्रेयान) अत्यन्त श्रेष्ठ अथवा
प्रशसनीय है। हे भगवन्! (त्वया) आपने ( श्रीमदमाय:) लक्ष्मी के मद को
नष्ट करने वाला अथवा स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करने वाली श्री लक्ष्मी
से युक्त और माया से रहित (स प्रयामदमाय.) श्रेष्ट एवं प्रशस्त इन्द्रिय
विजय का (समादेशि) उपदेश किया है।
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गिरि-भिन्त्य-वंदान-वतः ,
श्रीमत इब दन्तिन: स्रबद-दानवत: ।
तथव शघ-वादान-वतो,
गत-मूर्जित-मपगत-प्रमादानवतः ॥ (42)
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अन्वयार्थ: हे भगवना (गिरिभित्त्यवदानवत:) जिस प्रकार पहाड़ की
कटनीयों में पराक्रम से युक्त अर्थात् उनका विदारण करने वाले ( श्रीमतः)
उत्तम जाति विशिष्ट तथा (स्रवद्दानवतः दन्तिन' इव) झरते हुए मद से
सहित हाथी का (ऊर्जितं) बलशाली अर्थात् रूकावट से रहित (गत)
गमन होता है उसी तरह (शमवादान् अवतः) दोषों के उपशमन का उपदेश
देने वाले शास्त्रों के रक्षक तथा (अपगतप्रमादानवत-) अभयदान से युक्त
(तब) आपका (गत) उत्कृष्ट गमन-विहार हुआ था।
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खहु-शुछ्य-सम्यद-सकल ,
पर-मत-मपि मधुर-वयन-विन्यास-कलम।
नय- भ्रकक््थ-वर्त सकल,
तब देव! मतं समन्तभद् सकलम् ॥ (43)
अन्ययार्थ; (हे देव) हे वीर जिनदेव! (परमतं) अन्य एकान्त वादियों का
शासन (मधुरवचनबविन्यासकलम् अपि) कर्णप्रिय बचनों के पिन्यास से
मनोज्ञ होता हुआ भी (बहुगुणसम्पद्सकलं) अत्याधिक गुण रूप सम्पत्ति
से विकल है परन्तु (तव) आपका (मं) शासन (नयभक्त्यवतं सकल)
नैगमादि नयो से उत्पन्न स्थात् अस्ति इत्यादि भड्ढ रूप आभूषणों से मनोज्ञ
है अथवा नयों की उपासना रूप कर्णाभरण को देने बाला है (समन्तभद्रं)
सब ओर से कल्याणकारक है और (सकल) पूर्ण है।
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इध्टगधाट्रोप बाएबएारट थार्त ध्रापिए 7306 एए ०ए ३ज९टए घएणा दाह
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एप्फ 35 शाहाताल्त ॥ 7 फ़ाट्टकुछ फए ए९टकुछ ए उएक्दीशववर4
बार 08080ल0095, 93320 ०॥ फट |79लफ़€ एछ उदय बढ [प्रा 4 एशॉकियणा
ए९णाल्डा) उएबब्राखबदंब, ताश$र€ प्राए 2९एशा 0775 458 & णीए
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गाव एजला- घार्थाएर तठि थी त ८एशए छत
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डा 5क्राशावं43क्74 5एग्रा।